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तत्त्वार्थसूत्रे
रूपत्वात् वस्तुनश्च-वस्तुत्वेनापि वस्त्वन्तरा तुल्यत्वे सति एकतरस्याऽवस्तुत्वमापद्येत, तदविनाभावाच्च द्वितीयस्याऽप्यभावप्रसङ्गः स्यात् ।।
तथाच-सर्व शून्यमित्यापत्तिः स्यात् नहि सर्वशून्यत्वमिष्टम् , तस्मात्-सकलशून्यताऽऽपत्तिभिया सामान्यविशेषयोः कथञ्चिद् वस्तुत्वेनाऽपि तुल्यत्वमभ्युपेयम् । ततश्च-सामान्यविशेषस्वभावं सर्वमिति व्यवस्थितं "स्याद्वाद" सिद्धान्ते सामान्यविशेषयोः परस्परं वा स्वभावविरहा भावात् सङ्कीर्णतायां सत्यामपि धर्मभेदप्रसिद्धेः समस्तव्ययहारसंसिद्धिर्भवति ।
एवञ्च-उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं सद्व्यमितिसिद्धम् । उक्तञ्च-स्थानाङ्गसूत्रे १० स्थाने-"उप्पन्ने वा विगए वा-धुवे वा" इति उत्पन्नो वा विगतो वा ध्रुवो वा इति ॥२५॥
मूलसूत्र--'तब्भाववयं निच्चं'--॥२६॥ छाया--तद्भावाऽव्ययं नित्यम्-॥२६॥
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे-उत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावं वस्तु सदित्युक्तम् । तत्र-ध्रौव्यपदेन नित्यत्वमुच्यते, तस्माद्-नित्यस्य लक्षणमाह-- 'तब्भाववयं निच्चं" इति । तद्भावऽव्ययं नित्यम् तद्भावः भवनं-भावः तस्य भावस्तद्भावः, येन भावेन-स्वभावेन स्वरूपेण वस्तु पूर्व दृष्टं तेनैव स्वरूपेण पुनरपि भावात्-सत्त्वात् तदेव वस्तु इत्येवं प्रत्यभिज्ञानं भवति । समान नहीं माना जाय तो एक वस्तु अवस्तु हो जाएगी और तदविनाभावी होने से दूसरी वस्तु का भी अभाव हो जाएगा। . ऐसी स्थिति में सर्वशून्यता की आपत्ति होगी, अर्थात् किसी भी वस्तु की सत्ता सिद्ध न होगी । सर्वशून्यता अभीष्ट नहीं है, अतएव सर्वशून्यता के भय से सामान्य और विशेष में कथंचित् वस्तुत्व की दृष्टि से भी तुल्यता स्वीकार करना चाहिए । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि सब पदार्थ सामान्य-विशेष स्वभाव वाले हैं। सामान्य और विशेष में परस्पर स्वभाव विरह का अभाव होने से एक रूपता होने पर भी धर्मभेद की सिद्धि होने के कारण समस्त व्यवहारों की सिद्धि हो जाती है ।
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप सत् द्रव्य का लक्षण है।
स्थानांगसूत्र में स्थान १० में कहा है-'वस्तु उत्पन्न भी होती है, बिनष्ट भी होती है और ध्रुव भी रहती है" ॥२५॥
मूलसूत्रार्थ--"तब्भाववयं निच्चं" ॥सूत्र २६॥ वस्तु का अपने मूल स्वरूप से नष्ट न होना नित्यत्व है ॥२६
तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में कहा गया है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाली वस्तु ही सत् है । वहाँ ध्रौव्य का अर्थ नित्यत्व है, अतः अब नित्य का लक्षण कहते हैं-जो वस्तु जिस स्वभाव में पहले देखी गई है, उसीस्वभाव में वह पुनः भी देखी जाती है । 'यह वही वस्तु है' इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है ।