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दीपिकानियुक्तिश्च अ२ सू २४
द्रव्यलक्षणनिरूपणम् २८९ सामान्यस्य लक्षणं तावत् सदिति विज्ञेयम् । एतेन किं विकारग्रन्थिरहितं सत्तामात्रं धर्मादीनां लक्षणम्- ? किंवा--उत्पाद विनाशरूपं विकारमात्रं तेषां लक्षणम् ! इति विप्रतिपत्तिरपि समाहिता ।
___ सत्त्वस्यैव धर्मादीनां सामान्यलक्षणत्वात् , तथाच-पूर्वोक्तगतिस्थित्यवगाहाद्युपकारेण तेषामस्तित्वनिश्चयात् प्रसिद्धसत्ताकत्वेन सत्त्वं खलु द्रव्यसामान्यलक्षणं निष्प्रत्यूहतया निदुष्टं भवति । अथ गतिस्थित्याधुपग्रहकारिणः खलु केऽपि धर्मादयः 'अप्रसिद्धसत्ताका:--'एवेतिचेत् ? अत्रोच्यते--एकीभावात् संग्रहात् उत्पादव्ययध्रौव्यरूपस्य सल्लक्षणस्य धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवात्मकेषु द्रव्येषूपलभ्यमानत्वेन तेषां सत्वेन प्रसिद्धत्वात् अस्तित्वाव्यभिचारात् ।
__"अत्रेदं बोध्यम्-" धर्माधर्माकाशकालपुद्रलजीवरूपाणि षद्रव्याणि जगतः स्वतत्त्वं वर्तन्ते, तत्र-जीवद्रव्यं धर्माधर्मादीनां स्वरूपस्य च ग्राहकं भवति । संक्षेपतः शब्दार्थज्ञानानि सत्त्वलक्षणस्य लक्ष्याणि लक्ष्यन्ते तद्यापिलक्षणं भवति, तस्मात् , धर्माधर्मादिद्रव्याणां सामान्यं सत्त्वलक्षणं समुपपन्नमिति भावः । उक्तञ्च-व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवतीसूत्रे ८ शतके ९ उद्देशके सत्पदद्वारे “सहव्वं वा इति “सद्रव्यं वा"-इति, सदिति द्व्यसामान्यलक्षणमवसेयम् ।। २४ ॥
मूलसूत्रम्-"उप्पायवयधौव्वजुत्तं स-" ॥२५॥ छाया-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥२५॥
द्रव्यसामान्य का लक्षण सत् है । इस कथन से क्या विकार की ग्रन्थि से रहित सत्तामात्र (धौव्य) धर्मादि का लक्षण है ? अथवा उत्पाद और विनाश रूप विकार ही उनका लक्षण है ? अथवा दोनों उनके ही लक्षण हैं ? इन सब विप्रतिपत्तियों का भी निवारण हो जाता है; क्योंकि सत्ता ही धर्म आदि का सामान्य लक्षण है । इस प्रकार गति, स्थिति, अवगाह आदि उपकार के द्वारा उनके अस्त्वित्व का निश्चय होता है ।
शंका-गति, स्थिति आदि में निमित्त होने वाले धर्मादि कोई अप्रसिद्ध सत्ता वाले हैं।
समाधान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप सत्त्व धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव द्रव्यों में उपलब्ध होता है, अतएव उनकी सत्ता प्रसिद्ध है । वे सत्त्व से अलग नहीं हो सकते ।
यहाँ यह बात समझ लेना चाहिए कि धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव यही छह द्रव्य जगत् का स्वरूप हैं । इनमें जीवद्रव्य ही धर्म अधर्म आदि के और अपने निज के स्वरूप का ग्राहक है । संक्षेप से शब्द, अर्थ और ज्ञान सभी में सत्त्व लक्षण पाया जाता है। अतएव यह लक्षण सर्वव्यापी है । तात्पर्य यह है कि धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों का सामान्य लक्षण सत्त्व ही संगत होता है। भगवतीसूत्र के आठवें शतक के ९ नव वें उद्देशक में सत्पदद्वारमें कहा है-द्रव्य का लक्षण सत् है ॥२४॥
मूलसूत्रार्थ--"उप्पाय वय धौव्वा' इत्यादि ॥२५॥ जो सत् है उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है ॥२५॥