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दीपिकानिर्युषितश्च अ २ सु. १६
पुद्गललक्षणनिरूपणम् २३९
सुखदुःखाद्याकारेण परिणममानस्यात्मनस्तु-निमित्ततया पुद्गला उपकारकाः भवन्ति । तत्र - बाह्यद्रव्यसम्बन्धापेक्षसद्वेद्योदयेन संसारिणो जीवस्य - इष्टवनिता-पुत्र-क्- चन्दनान्नपानादिपुद् गलद्रव्योपजनितं प्रसादपरिणामात्मकं सुखम्, पुद्गलानां निमित्ततयाऽऽत्मनः परिणतावुपकाररूपं भवति ।
" एवमसद्योदयात् बाह्य पुद्गलरूपाऽनिष्टद्रव्यापेक्षः संक्लेशरूपः आत्मपरिणामो दुःखम् । तत्रापि तेषां पुद्गलानां निमित्ततयोपकारकत्वमेवोपकाररूपं बोध्यम् । भवस्थितिकारणायुर्दव्यसम्बन्धभाजः पुरुषस्य प्राणापानलक्षणक्रियाविशेषाऽप्रशमनं जीवितम् तथाविधस्य पुरुषस्य प्राणापानलक्षणाशेषक्रियोपरमणं मरणमुच्यते ।
अथ मरणं तावद् आत्मनः प्रतिकूलतया कथमनुग्राहकं भविष्यति - इतिचेदुच्यते- पण्डि तमरणस्य सद्गतिप्रापकत्वेन तस्य मरणप्रियत्वात् तथा - निर्विण्णस्य पुरुषस्य मरणप्रियत्वात् विषाग्निद्रव्यसम्बन्धे संति आयुषो योगपद्येनोपभागोदयात्कण्टकादिवेदनावत् । एवञ्च स्वचेतो विकल्पापेक्षमेव स्पर्शरसगन्धरूपशब्दादीनामिष्टत्वमनिष्टत्वञ्च भवति ।
तथाचोक्तम् — तावानेवार्थान् द्विषत स्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । freedisस्यानिष्टं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा ॥ १ ॥ इति ।
र्त्तन करने वाले होते हैं । औदारिक शरीर आदि के रूप में परिणत हुए पुद्गल आत्मा का साक्षात् उपकार करते हैं ।
पुदगल उसमें निमित्त हो जाते
सुख - दुःख पर्याय में आत्मा स्वयं परिणत होती है, हैं । बाह्य द्रव्यों के संबंध रूप निमित्त से सातावेदनीय का उदय होने पर संसारी जीव को इष्ट स्त्री, पुत्र, माला, चन्दन, अन्न-पान आदि पुद्गलों से प्रसाद परिणाम रूप सुख की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार आत्मा की परिणति में पुद्गल निमित्त बनकर उपकार करते हैं ।
अशातावेदनीय कर्म के उदय अनिष्ट बाह्य पुद्गलों के कारण आत्मा में संक्लेश रूप परिणति होना दुःख कहलाता है । इसमें भी पुद्गल निमित्त होते हैं ।
भवस्थिति के करणभूत आयु कर्म के संबंध वाले पुरुष की श्वासोच्छ्वास क्रिया का पूरी तरह बंद हो जाना मरण कहलाता है |
शंका - मरण आत्मा के लिए प्रतिकूल है, अतः उसे अनुग्राहक - उपकारक कैसे कह सकते हैं ?
समाधान- - पण्डितमरण सद्गति को प्राप्त कराने वाला है, अतः वह मरण प्रिय होता है. इसी प्रकार विरक्त पुरुष को भी मरण प्रिय होता है स्पर्श, रस, गंध- वर्ण और शब्द का इष्ट या अनिष्ट होना जीव की अपनी चित्तवृत्ति पर निर्भर करता है । कहा भी हैनिश्चय नय से अर्थात् वास्तविक रूप से न कोई पदार्थ इष्ट होता है, न अनिष्ट; मगर जिस पदार्थ पर द्वेष उत्पन्न होता है वहीं अनिष्ट बन जाता है और जिस पर रागवृत्ति उत्पन्न होती है, वह इष्ट प्रतीत होने लगता है ।