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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू.१३-१४
जीवानामवगाहनिरूपणम् २२३ यत्र तत् मर्मव्यपदिश्यते, बहुमर्मकश्च मूर्धा भवति, मर्मदेशेषु च महती वेदना भवति । आयुर्भेदश्वाऽध्यवसानादिनिमित्तः सप्तप्रकारकः प्रसिद्धः ।
तस्मात्-आत्मनः कर्माऽनुभावजनितौ सङ्कोच--विकासौ भवतः, न तु-नाशो भवति, सत्यपि सङ्कोचविकासे वाऽमूर्तत्वात् । स्यद्वादिनां मते कस्यचिद्वस्तुनः सर्वथा स्वतत्त्वनाशो न भवति, आत्मनः प्रदेशसंख्यायाः सङ्कोचविकासयोः सतोरपि हासो वा-वृद्धिर्वा न सम्भवति, क्षेत्रतः पुनरात्मनस्तौ स्यातामेवेति भावः ।।
उक्तञ्च-प्रज्ञापनायां २-पदे जीवस्थानाधिकारे—'लोयस्स असंखेज्जइभागे-" इति । लोकस्याऽसंख्येयभागे-इति, राजप्रश्नीयसूत्रे चोक्तम्- "दीवं व० जीवे वि जं जारिसय पुव्वकम्मनिबद्धं बोंदि णिवत्तेइ तं असंखेज्झेहिं जीवपदेसेहिं सचित्तं करेइ खुड्डियं वा-महालियं वा-इति । दीप इव जीवोऽपि यद् यादृशं पूर्वकर्मनिबद्धं बोन्दि निवर्तयति । तत्-असंख्येयैर्जीवप्रदेशैः सचित्तं करोति क्षुद्रं वा महालयं वा, ॥इति॥ १३ ॥
मूलसूत्रम्-"मणुस्सक्खेत्ते ओगाहो कालस्स" ॥१४॥ छाया-मनुष्य क्षेत्रेऽवगाहः कालस्स ॥१४॥
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व धर्माऽधर्माकाशपुद्गलजीवानां पञ्चद्रव्याणां लोकाकाशेऽवगाहः प्रतिपादितः सम्प्रति-कालद्रव्यस्याऽवगाहं प्रतिपादयितुमाह-"मणुस्सक्खेत्ते ओगाहो कालस्स"
__समाधान--वेदन आयु का भेद हो जाने से यह दोष नहीं आता । जहाँ बहुसंख्यक जीवप्रदेश एकत्र होकर रहते हैं, उसे मूर्त कहते हैं । मस्तक बहुत मर्म वाला है। मर्मदेशों में महान् वेदना होती है । अध्यवसान आदि सात कारणों से आयु का भेदन हो जाता है, यह बात प्रसिद्ध है।
इस कारण आत्मा का कर्मोदय के अनुसार संकोच और विस्तार होता है, किन्तु नाश नहीं होता, क्योंकि वह अमूर्त है । भावार्थ यह है कि जैनमत में किसी भी वस्तु का समूल विनाश नहीं होता है और प्रदेशों का संकोच-विस्तार होने पर भी आत्मा का हास अथवा वृद्धि नहीं होती । हाँ, क्षेत्र की अपेक्षा वृद्धि-हास हुआ करता है, प्रदेशों की अपेक्षा नहीं, प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे पद में जीवस्थान प्रकरण में कहा है-'जीव लोक के असंख्यातवे भाग में रहता है।' राजप्रश्नीयसूत्र में भी कहा है-'अपने पूर्वार्जित कर्म के अनुसार जीव जैसे शरीर को प्राप्त करता है, उसी को अपने असंख्यात प्रदेशों से व्याप्त कर लेता है-सजीव बना लेता है, चाहे वह छोटा हो अथवा बडा हो' ॥१३॥
मूलसूत्रार्थ----'मणुस्सक्खेत्ते' इत्यादि ॥सूत्र १४॥ मनुष्य क्षेत्र में कालद्रव्य का अवगाह है ॥१४॥
तत्त्वार्थदीपिका-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव द्रव्य का अवगाह लोकाकाश में है, यह बात बतलाई जा चुकी है, अब कालद्रव्य का अवगाह बतलाने के लिए कहते