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दीपिका नियुक्तिश्च अ० १ सू. २९
जीवानां शरीरधारणं तल्लक्षणनिरूपणं च ११७ जन्मोत्सवादौ सर्वत्र गच्छति । विक्रिया विकारो बहुरूपता एकस्याऽनेककरणं तया निर्वृर्त्तमनेकाश्चर्याधायक नानागुणर्द्धिसम्प्रयुक्त पुगलवर्गणाकृतं शरीरं वैक्रियं बोध्यम् ।
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एवं सूक्ष्मपदार्थविज्ञानार्थम् असंयमजिहीर्षया वा प्रमत्तसंयतेनाह्रियते-निर्वर्त्यते यत् तद् आहारकम् । शुभतरशुक्लविशुद्धद्रव्यवर्गणानिर्मितं • प्रतिविशिष्टप्रयोजनायाऽऽह्रियते उपादीयते यत् तदन्तमुहूर्तस्थित्याहारकं शरीरं । एतच्च प्रमत्तसंयतेनैव निष्पाद्यते,
प्रमत्तसंयतस्य यदा सूक्ष्मपदार्थे संयमविचारे वा सन्देहो जायते तदा - तीर्थकरस्य सन्निधौ सन्देहनिवारणार्थं तस्य तालप्रदेशच्छिद्राद् निर्गत्य हस्तप्रमाणं पुत्तलकं गच्छति ततश्वतीर्थकरशरीरं स्पृष्ट्वा पश्चात् परावृत्य तेनैव तालुच्छिद्रेण प्रमत्तसंयते प्रविशति तस्य सन्देहो - विनश्यतीति भावः ।
तेजोनिमित्तकं तेजसि वा भवं तैजसं शरीरम् । कर्मणा निष्पन्नं शरीरं कार्मणमुच्यते अशेषकर्मराशेराधारभूतं बदरीफलादीनां कुण्डादिवत्, कर्मणां कार्यं वा कार्मणं शरीरमुच्यते सकलकर्मजननस - मर्थं वेति ॥२९॥
ही उनके जन्मोत्सव आदि में सम्मिलित होता है । विक्रिया, विकार, बहुरूपता या एक को अनेक बनाना, यह सब समानार्थक शब्द हैं । तात्पर्य यह है कि जो शरीर विक्रिया से बना हो, अनेक आश्चर्य उत्पन्न करने वाला हो, नाना प्रकार के गुणों से युक्त हो, ऐसा वैकियवर्गणा के पुद्रलों से निर्मित शरीर वैक्रिय कहा गया है ।
सूक्ष्म तत्त्व को जानने के लिए या असंयम को निवारण करने के लिए आदि कारणों से प्रमत्तसंयत के द्वारा जो शरीर निष्पादित किया जाता है, वह आहारक कहलाता है । यह शरीर अत्यन्त शुभ, शुक्ल और विशुद्ध द्रव्यों से निर्मित होता है । विशेष प्रयोजन से बनाया जाता है और अन्तर्मुहूर्त्त की स्थिति वाला होता है । प्रमत्तसंयत मुनि ही इस शरीर को निष्पन्न करते हैं।
जब प्रमत्तसंयत को किसी गहन तत्त्व में अथवा संयम के विषय में सन्देह उत्पन्न होता है, तब तोर्थकर तथा केवली भगवान् के निकट सन्देह को दूर करने के लिए तालुप्रदेश के छिद्र से निकल कर एक हाथ का पुतला वहाँ जाता है, जाकर तीर्थंकर आदि से पूछ कर वापिस लौट आता है और उसी तालु के छिद्र से प्रमत्तसंयत के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । ऐसा करने से उसका संदेह दूर हो जाता है ।
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तेज से जो शरीर उत्पन्न होता है, वह तैजस कहलाता है । कर्म द्वारा निष्पन्न शरीर को कार्मण कहते हैं । जैसे बोर आदि का आधार कुण्ड ( कूंडा ) होता है, उसी प्रकार यह कार्मणशरीर समस्त कर्मराशि का आधार है । अथवा जो शरीर कर्मों का कहलाता है । यह समस्त कर्मों को उत्पन्न करने में समर्थ होता है ॥२९॥
कार्य हो वह कार्मण