Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-सन
मिक साहित्य में अन्यत्र जहां-कहीं हुपा है, साधारण प्रचलित पर्व में ही हुमा है अर्थात् उनका मुकाव मांसाहारपरक प्रर्थ की ओर ही है । टीकाकारों ने दोनों प्रकार के अर्थ की ओर संकेत किया है । वस्तुत: प्रस्तुत शतक ही अनेक विसंगतियों एवं दोषों से परिपूर्ण है । यह पूरा भयवा अधिकांश कृत्रिम मालूम पड़ता है। गोशाल की तीर्थकर के रूप में प्रसिद्धि तथा उसका नियतिवाद ये दोनों बातें तो बौद्ध साहित्य से भी प्रकट होती हैं किन्तु जिस ढंग से इस शतक में गोशाल का चरित्र चित्रण हुमा है वह कुछ विचित्र-सा मालूम पड़ता है।. मागम और उसमें भी अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत इस प्रकार का वर्णन और यह भी कहीं-कहीं साषारण साधु को भी शोभा न दे वैसी भाषा में उपयुक्त प्रतीत नहीं होता, चाहे वह तथ्य पर ही माघारित क्यों न हो। ____गोशान-सम्बन्धी प्रस्तुत शतक का प्रारम्भ श्रावस्ती में रहनेवाली माजीविक मत अर्थात् गोशाल के मत नियतिवाद को उपासिका हानाहला नामक कुम्हारिन से होता है। सूत्रकार कहते हैं कि वह शमृद्धिशालिनी तथा प्रभावसम्मन्न थी एवं किसी से भी पराभूत नहीं हो सकती पी। इस उल्लेख से ऐसा प्रकट होता है कि भगवान महावीर भी उसे नियतिवाद की पयथार्थता एवं पुरुषार्थवाद या कमवार को यथार्थता समझाने में सफलता प्राप्त न कर सके प्रथवा समझाने का प्रयत्न ही न कर सके । उपासकदशा सूत्र ( सप्तम अध्ययन ) में सद्दालपुत्र नामक एक कुम्हार प्रावक का वर्णन है जो गोशाल का अनुयायी या अर्थात् नियतिवादी था। बाद में भगवान महावीर ने उसे युक्तिपूर्वक मपना अर्थात् पुरुषावार का मनुयायी बना लिया था। भाजीविक मतानुयायियों से सम्बन्धित इनसे उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि गोशाल के अधिकांश अनुयाची कुनकार थे। जब भगवान महावीर ने सद्दालपुत्र को युक्तिपूर्वक अपना यायो बना लिया तो क्या वे हालाहला को मानी युक्तियों से प्रभावित नहीं कर सकते थे? हालाहला उनके सामने अपराभूत कैसे हो -
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