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(३८)
अष्टांगहृदये।
अ. ४
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नदियोंका जल । विद्यात्कूपतडागादीन्जांगलानूपशेलतः । पश्चिमोदधिगाशीघ्रवहायाश्चामलोदकाः ८ अर्थ--जांगल, आनूप, और पार्वतीय देशों पथ्याःसमासात्तानद्योविपरीतास्त्वतोऽन्यथा के गुणागुणके अनुसार उन उन देशों के
अर्थ- जो नदी प्रवल वेगसे बहतीहुई | कूप, सारस, तडाग, चौडन्य, झरना, नदी पश्चिम समुद्रोंमें गिरतीहै और जिनका जल आदि के जलों का गुणागुण हो जाता है, भी निर्मल है ऐसी तीन गुणोंसे युक्त नदियां जैसे जांगल देशीय कपादि का जल हलका हितकारी है, इससे विपरीत लक्षणवाली | और अनूप देशीय जलाशयों का जल भारी नदियां अपथ्यहैं ।
होता है । उपलास्फालनाक्षेपविच्छेदैःखेदितोदकाः । हिमवन्मलयोद्भूताः पथ्यास्ताएषचस्थिराः । कृमिलीपद हत्कंठ शिरोरोगान् प्रकुर्वते १०
अन्य प्रथों से कोपादिः जल के अर्थ- हिमालय और मलयागिरिसे नि
MINS लक्षण लिखते हैं: कौपं स्वादु त्रिदोषघ्नं
लघु पथ्यं चसर्वदा । क्षारन्तु कफ बातघ्नं कली हुई उन्हीं संपूर्ण नदियोंका जल पथ्यहै
दीपनं पित्तकृत्परम् । कषाय बहुलं श्लेष्म जो चटानोंके ऊपर प्रवल बेगसे टकराती पित्तघ्नं बातकृच्चतत् । तृष्णाघ्नं सारसं हुई चली आतीहैं, इनसे विपरीत लक्षण बल्यं कषायं मधुरं लघु । भौद्भिदं स्वादु वाली नदियां पथ्य नहीं होती किन्तु उनका
पित्तघ्नं दीपनं गुरु किंचन । सक्षार कटु
वाप्यंबु पित्तलं कफ, वाताजत् । विशद जलपान करनेसे कृमिरोग, श्लीपद, हृद्रोग,
घातलं रूक्षमनवस्थित लाघवम् ॥ इसी कंठरोग और शिरोरोग उत्पन्न होजातेहैं।
तरह सुश्रुतादि ग्रन्थों में भी इन सब के प्राच्याऽऽवंत्यपरांतात्थादुर्नामानिमहेन्द्रजा।
लक्षण विस्तार पूर्वक लिखे हैं ॥ उदलीपदातंकान्सह्यविध्योद्भवाःपुनः॥११॥ कुष्टपांडुशिरोरोगान् दोषघ्न्यः पारयात्रजाः |
जलपान के अयोग्यरोगी । बलपौरुषकारिण्यासागरांभस्त्रिदोषकृत् ।१२। नांबुपेयमशक्तयावास्वल्पमल्पाग्निगुल्मिभिः अर्थ- गौड़, मालव, और कौंकण देश पाडूद
पांडूदातिसारार्थीग्रहणादोषशोथिमिः। की नदियोंका जल पीनेसे अर्शरोग होताहै। *
ऋतेशरनिदाघाभ्यांपिवेत्स्वस्थाऽपिचाल्पशः माहेन्द्र पर्वतोंसे निकली हुई नदियां उदर
| अर्थ-अग्निमान्द्य, गुल्म, पांडु, उदररोग और इलीपद रोगोंको करतीहै, सह्याद्रि और अतिसार, बवासीर, ग्रहणी और सूजन विन्ध्याचलसे निकली हुई नादियोंका नवीन वाले रोगियों को जल पीना उचित नहीं है। जल पीनेमे कुष्ठरोग, पाण्डुरोग और शिरो और जो प्यास को बिलकुल न सह सकता रोग उत्पन्न होताहै, पारयात्र पर्वतोंसे नि- हो तो थोड़ा थोड़ा पानी पीवै । शरद और कली हुई नदियोंका जल त्रिदोषनाशक तथा ग्रीष्मऋतुओं को छोडकर अन्य ऋतुओं में वल और पौरुषकारक होताहै तथा समुद्रका सुस्थ मनुष्य को भी थोड़ा थोड़ा नल पीना जल त्रिदोषकारक होताहै ।
उचित है।
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