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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
शिरोरोग का कारण । " धूमातपतुषारांयुक्रीडातिस्वप्नजागरैः । उत्स्वेदाधिपुरोवासवाष्पनिग्रहरोदनैः १ अत्यंबुमद्यपानेन कृमिभिर्वेगधारणैः । उपधानमृजाभ्यंगद्वेषाधः प्रततक्षणैः । २ असात्म्यगंधदुष्टामभाग्याद्यैश्च शिरोगताः । जनयंत्यामयान् दोषाः
अर्थ - धूंआ, धूप, सर्दी, जलक्रीडा, दिनमें बहुत सौना, रात्रि में जागना, ऊर्ध्वस्वेद, साम्हनेकी प्रबल बायु, अथवा पूर्वदिशा की वायु, आंसुआ का रोकना, रौना, अधिक जलगीना, अधिक मद्यपान करना, कृमि, मलमूत्रादि के बेगको रोकना, बिना तकिया लगाये शयन करना, स्नान न करना, तैलादि न लगाना, नीचेको अधिक दृष्टि रखना, असात्म्यगंध, दुष्ट आम और अति भाषणादि कारणों से शिरोगत संपूर्ण दोष सिर के रोगों को उत्पन्न करते हैं । वातजशिरोरोग |
तत्र मारुतकोपतः ॥ ३ ॥ निस्तद्येते भृशं शंखौ घाटा संभिद्यते तथा । भ्रुवोर्मध्यं ललाटं च पततीवातिवेदनम् ४ बाध्येते स्वनतः श्रोत्रे निष्कृष्येत इवाक्षिणी घूर्णतीव शिरः सर्व संधिभ्य इव मुच्यते । स्फुरत्यतिशिराजालं कंदराहनुसंग्रहः । प्रकाशास्त्रहता घ्राणस्त्राषोऽकस्माद्यथाशमी मार्दवं मर्दनस्वेव धैश्च जायते । शिरस्तपोऽयम्
अर्थ- इनमें से वायुके कारण दोनों कनपटियों में सुई छिदने की सी पीडा होती है और घाटामें भेदनवत् वेदना होती है। दोनों भृकुटियों के बीच में और ललाट में गिरने के से समान अत्यन्त वेदना होती है ।
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शब्द के कारण दोनों कानों में वेदना होने लगती है, आंखें निकली हुई सी माळूम होती है, संपूर्ण मस्तक घूमता हुआ दिखाई देता है, और संधियों से हटा हुआ माळूम होने लगता है । सिराजाल फडकने लगता है, कंधे और हनुप्रदेश क्रियाहीन से प्रतीत होते हैं, चांदना अच्छा मालूम नहीं देता है नासिका से जल टपकने लगता है, स्मात् दर्द उठकर शांत हो जाता है, मर्दन स्नेह स्वेदन और बन्धन द्वारा पीडा का ह्रास होता है । इस शिरोरोग को शिरस्ताप भी कहते हैं ।
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अर्द्धावभेदक के लक्षण । अर्धे तु मूर्ध्नः सोर्घावभेदकः ॥ ७ ॥ पक्षात्कुप्यति मासाद्वास्वयमेव च शाम्यति प्रतिवृद्धस्तु नयनं श्रवणं वा विनाशयेत् ८ शिरोभितापे पत्तोत्थेशिरो धूमायनं ज्वरः स्वेदोक्षिदहनं मूर्छा निशि शीतैश्वमार्दवम्
अर्थ - मस्तक के आधे भाग में जो शिरोविकार होता है, उसे अर्द्धादिक कहते हैं । यहरोग पन्द्रहवें दिन वा महिने महिने में कुपित होता है और औषध के बिना अप आप शांत होजाता है । अर्द्धावभेदक प्रबल होजाने पर नेत्र वा कानों को मार देता है, पित्तजनित शिरोभिताप में मस्तक से धुआं निकलने कीसी पीडा होती है, ज्वर, पसीना, नेत्रों में दाह, और मूर्च्छ, ये सब लक्षण उपस्थित होते हैं । रात्रिके समय शीतल उपचारों से दर्द में कमी होजाती है । कफजशिरोऽभिताप |
refer कफजे मूर्ध्ना गुरुस्तिमितशतिता ।
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