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अष्टांगहृदय ।
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कृष्णदुधानविनावी तृष्मू ज्वरवाहवान् | अथव मोरवा,सफेद कटेरी, सोमकी छाल इधिकालुष्यवमथुश्वासकासकर क्षणात् ।। मजीठ, सिरस और बडवेरी इनमें से किसी आरक्तपातपर्यतः श्यावमध्योतिरुग्वणः ४३ सूयते पच्यते सद्योगत्वामांसं च कृष्णताम्
एकके क्षारसे प्रतिसारणकरे। तथा श्यौनाक प्रक्लिन्नं शीर्यतेऽभीक्ष्णं सपिच्छिलपरिस्रवम् |
की छाल, अतीस और कटेरी की जड़ इन कुर्यादमर्मविद्धस्य हृदयावरणं दुतम्। | का लेप करे । - अर्थ-जो मनुष्य विषलिप्त अर्थात् जहर | विषलिप्तशस्त्रविड की चिकित्सा । के बुझे हुए शस्त्रसे बिद्ध होता है, वह बार | कीटवष्टचिकित्सां च कुर्यात्तस्य यथार्हतः बार मुछित होजाता है, उसका देह विवर्ण ___अर्थ-विषलिप्त शस्त्रसे बिधे हुए रोगी होजाता है, शीघ्रही विषाद को प्राप्त होताहै, | की चिकित्सा कीटदष्ट के सदृश करनी और उसका देह कीडों से व्याप्त की तरह
चाहिये । चिमचिमाहट करता है । कमर, पीठ, सिर
। दुगंधितब्रण का उपाय । कंधा और संधियों में वेदना होने लगती है, (बणे तु,पूतिपिशिते क्रिया पित्ताविसर्पवत् काला और विगडा हआ समिती अर्थ-दुगंधित मांसवाले व्रणकी चिकिलगता है, रोगी को तृषा, मी, ज्वर और
त्सा पित्तविसर्प के समान करनी चाहिये । दाह, पीडित करते हैं, दृष्टिमें कलुषता,वमन विष देनेवालों का वर्णन । श्वास, खांसी ये उपद्रव शीघ्र पैदा होजाते | सौभाग्यास्त्रियोभत्रैराशेवाऽरातिचोदिताः हैं। उसके ऐसे घाव होजाते हैं जो कि
गरमाहारसंपृक्तं यच्छंत्यासमवर्तिनः। नारों पर ललाई लिये हुए पीले होते हैं और
____ अर्थ-कोई कोई स्त्रियां सौभाग्य प्राप्ति बीचमे याववर्ण के होते और इनमें चोर । केलिये अर्थात् स्वामी की आदरिणी होने के वेदना होने लगती है, घाव सूजकर शीघ्र
निमित्त भर्ता को विषमिश्रित भोजन दे देती पकजाता है, और मांस झटपट काला होकर
है, तथा शत्रु से प्रेरित हुए राजा के प्रल्किन होता हुआ गिर. पडता है और निकटवर्ती मनुष्य राजा को बिष देदेते हैं । उसमें से निरंतर पिच्छिल स्त्राव होता रहता
गरके लक्षण ।
नानाप्राण्यंगशमलविरुद्धौषधिभस्मनाम् । है । मर्मस्थान के बिद्ध न होने पर भी हृदय
विषाणांचाल्पवीर्याणां योगो गरइति स्मृतः का आवरण शीघ्रता पूर्वक होजाता है।
अर्थ-अनेक प्रकार के जीवों के अंग शल्याकर्षण में कर्तव्य । शल्यमाकृष्य तप्तने लोहेनानु दहेवणम्।।
और पुरीष, विरुद्ध औषधियों की भस्म और अथवा मुष्ककश्वेतासोमत्वक्ताम्रपाल्लतः। | अल्पवीर्य विष इनके योग को गर अर्थात शिरीपाद गृध्रनख्याश्वक्षारेणप्रतिसारयेत्
संयोगज विष कहते हैं। शुकनासामतिविषाव्याघ्रीमूलश्च लेपयेत् अथे-शल्यको खीचकर लोहे की प्रतप्त
गरपीडित के लक्षण । शलाका से ब्रणको दग्ध कर देना चाहिये ।
तेन पांडुःकृशोल्पानि:कासश्वासज्वरार्दिता १५ घायुना प्रतिलोमेन स्वप्नचितापरायणः ।
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