Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 1046
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९४९ ) नीलनी और निसोत आदि विरेचन द्रव्यों । स्नेहन कर्म घृत द्वारा करनाही उचित्त है, को देकर विरेचन करावे । घृत के सिवाय और किसी प्रकार का दाह निवृति में कर्तव्य ॥ स्नेहन न करे । तेल से विष ऐसे वढता है मिवृत्ते दाहशोफादो कर्णिकां पातयेद् व्रणात् जैसे तण के समूह से अग्नि बढती है । ___ अर्थ-दाह और शोमादि के शांत होने ताविष पर तीन प्रयोग ।। पर व्रण से कर्णिका को दूर करदेना । हीवरचककतगोपकन्याचाहिये। मुस्ताशमीचंदनटिंटुकानि। । अन्य प्रयोग । शैवालनीलोत्पलवक्रयष्टीकुसुभपुष्पं गोदंतः स्वर्णक्षीरी कपोतविट् । त्वग्नाकुलीपद्मफराठमध्यम् ॥ ८२॥ त्रिवृतासैंधवं देतीकर्णिकापातनं तथा ॥ रजनीघनसर्पलोचनामूलमुसरवारुण्या वंशनिलेखसंयुतम् । कणशुंठीकणमूलाचत्रकाः। . अर्थ-कसूम, गोदंत, स्वर्णक्षीरी, कबूतर वरुणागुरुबिल्वपाटली पिचुमदाभयशलुकेसरम् ॥ ८३॥ की वीट, निसोथ, सेंधानमक, दन्ती । इन विल्वचंदननतोत्पलशुठीदवाओं से फर्णका गिरजाती है । अथवा पिप्पलीनिचुलवेतसकुष्टम् ।। इन्द्रायण की जड़ में बांस का निर्लेख मिला- शुक्तिशाकबरपाटलिभार्गीकर प्रयोग करने से भी कर्णका गिर सिंदुवारकरघाटवरांगम् ॥ ८४ ॥ पित्तकफानिललूताः पानांजननस्यलेपसेफेन जाती है। सैंधवादि प्रयोग ॥ अगदवरा वृत्तस्थाः कुमतीरिव वारयत्येते ॥ अर्थ-(१) नेत्रवाला, बिकंकत, अनन्त तश्च सैंधव कुष्ट दंतिकटुकदौग्धिकम् ॥ मूल, मोथा, शमी, चन्दन, श्यामा, शैवाल, राजकोशातकीमूलं किणो वा मथितोद्भवः । ___ अर्थ-सेंधानमक, कूठ, दंती, कुटकी, नीलोत्पल, तगर, मुलहटी, दालचीनी, दुद्धी, राजकोशातकी की जड़, अथवा तक नाकुली, पदमाख, मेनफल का गूदा, का झाग । इनको लगाने से कर्णिका गिर (२) हलदी, नागरमोथा, सर्वाक्षी, पीपल पड़ती है। सोंठ,पीपलामूल, चीता, बरना, अगर, विल्य, कार्णका पात में वृंहण ॥ | पाटली, नीम, हरड, शेलु और केसर । कर्णिकापातसमय वृहयेच विषापहः॥ (३) बेलगिरी, चन्दन, तगर, भाडंगी, अर्थ-कर्णिका के गिरने के समय विष संभालू, करघाट और दालचीनी, एक एक . | इलोक में कहेहुए ये तीनों प्रयोग पान, नाशक वृंहण क्रिया का प्रयोग करना अंजन, नस्य, प्रलेप और परिषेक द्वारा चाहिये। . प्रयोग कियेजाने पर यथाक्रम, पित्ताधिवय, लताबिष में स्नेहन । | कफाधिवय और बाताधिक्य वाले मकड़ी स्नेहकार्यमशेषं च सर्पिषैष समाचरेत् ।। विषस्य वृद्धये तैलमनेरिष तृणोलुपम् ॥ के विष को दूर करते हैं, जैसे सदाचरण अर्थ-मकड़ी के बिष में सब प्रकार के | वाला मनुष्य कुमति को रोक देता है। For Private And Personal Use Only

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