Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 1061
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९६४) . अष्टांगहृदय। तैलाभ्यंग, और अग्नि सेवन, ये सब त्याग अंत में हथेली भर इस तेलको पान करे । देने चाहिये। पान करने से पहिले मज्जासारादि इस मंत्र सर्वकुण्ठनाशक तेल । | से उक्त तेलको अभिमंत्रित करे । इस तेल वृक्षास्तुवरका नाम पश्चिमार्णवतीरजाः।। बीचीतरंगविक्षोभमारुतोद्धतपल्लवाः ॥ के सेवन करने से शरीरस्थ दोष बारबार ऊपर वा नीचे के मार्ग से निकल जाते हैं तभ्यः फलान्यादीत सुप्रकान्यबुदागमे । । मजाफलेभ्यश्चादायशोषयित्वाऽवचूर्णयच सायंकाल के समय चिकनाई और नमक तिलवत पीड़येद् द्रोण्यां क्वाथयेद्वाकुसुंभवत् से रहित ठंडी यवागू का पान करे । इस ततैलं संसृतं भूयः पचेदासलिलक्षयात् ॥ नियम से पांच दिन तक यह तेल पीना अवतार्य करीषेच पक्षमा निधापयेत् । | चाहिये तथा वर्जित द्रव्यों का सर्वथा त्याग स्निग्धस्विन्नो हतमल पक्षादुधृत्य तत्ततः॥ चतुर्थभकांतरितः प्रातः पाणितलं पिबेत् ।। करदेना चाहिये । इस तेल के पीने से सब मरणानेन पूतस्य तैलस्य दिवसे शुभे । प्रकार के कुष्ठ जाते रहते हैं। मजासार महापीर्य धातून सर्वान् विशोधय अन्य प्रयोग। शंखचक्रगदापाणिस्त्वामाज्ञापयतेऽच्युतः। तदेव खदिरकाथे त्रिगुणे साधु साधितम् । तेनास्योलमधस्ताच्चदोषा यांत्यसकृत्ततः। निहितं पूर्ववत्यक्षं पिबेन्मासं सुयंत्रितः। सायमस्नेहलवणां यवागू शीतलां पिबेत् । तेनाभ्यक्तशरीरश्च कुशाहारमीरितम् । पंचाहानि पिवेत्तैलमित्थं वानि वर्जयेत् अननाशु प्रयोगेण साधयेत्कुष्ठिनं नरम् । पक्षं मुद्गरसानाशी लबर्षमुच्यते ।। अर्थ-उपर लिखे हुए तेल को खैर के - अर्थ-पश्चिमीय समुद्र के किनारों पर तिगने क्वाथ में उत्तम रीति से पकाकर तुबुर नामक वृक्ष होते हैं, इनके पत्ते समुद्र पूर्वोक्त रीत के अनुसार सूखे गोवरमें गाढदे की लहरों से क्षुभित हुए वायु द्वारा हिलते फिर पन्द्रह दिन पीछे निकाल कर नियम रहते हैं । वर्षाऋतु के आगमन काल में पूर्वक एक महिने तक पान करे, इस तेल इनके पके हुए फलों को एकत्रित करे । को देह पर लगाकर पूर्वोक्त मुद्गरस और इनके गूदे को सुखाकर पीसले । और अन्नादि का भोजन करे । इस औषध से इसको तिलों की तरह द्रोणी में पीडित कुष्ठरोग शांत होजाता है। करके अथवा कसूमकी तरह काढा करके तेल द्विशतायुष्कर तेल । निकालले और इस तेलको अग्नि पर पका | सर्पिर्मधुयुतं पीतं तदेव खदिराद्विना।" कर जलरहित करदें। इस तेलको किसी पक्षं मांसरसाहारं करोति द्विशतायुषम् । पात्र में भरकर सूखे हुए गोवर के ढेर में अर्थ-इस तुवर मज्ज के तेल को खैर पन्द्रह दिनके लिये गाढ देवे । और फिर के कार्य में सिद्ध किये बिना घी और शहत निकाल कर रखछोडे । फिर स्निग्ध और के साथ पन्द्रह दिन तक पान करे, और स्विन्न होकर तथा वमन विरेचन-से शुद्ध । मांसरस का अहार करे, इससे दोसौ वर्षकी होकर किसी शुभदिन में चौथे भोजन के | भायु होजाती है । For Private And Personal Use Only

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