Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 1059
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९६२) अष्टांगहृदय । अ०.३९. भावत्वारिंशतस्तानि हासयवित्तमः। । परिबारित समंतात्पचेत्ततो गोमयामिनासहस्रमुपयुजीत सप्ताहैरिति सप्तभिः॥ .. मृदुना। यंत्रितारमा घृतक्षीरशालिषाष्टिकभोजनः। तत्स्वरसोयश्च्यवतेगृहीयात्तंदिनेऽन्यस्मिन् तद्वात्रिगुणितं काळं प्रयोगांतेऽपि चाचरेत् ममुमुपयुज्यस्वरसमध्यष्टमभागिकं. आशिषो लभतेऽपूर्वा वर्दीप्ति विशेषतः। द्विगुणसर्पिः। प्रमेहकमिकुष्टाओं मेदोदोषविवर्जितः ॥ पूर्वविधियंत्रितात्मा प्राप्नोति गुणान्स तानेष .. अर्थ-गर्मी की ऋतु में मोटे ३ भिलाषे अर्थ- एक पिष्टस्वेदन पात्र जिसमें शालि लाकर नाज के ढेर में गाढ दे. फिर हेमंत | धान्यका चूर्ण स्वेदित किया जाता है लेये ऋतु में स्वादु, स्निग्ध और शीतल पदार्थों और इसमें दृढ तथा जर्जरतासहित भिलाकों के सेवन से देह को संस्कृत करके उन को भरकर ऊपर काली मृतिका लपेटकर भिलावों मेंसे आठ लेकर भठ गुने जल में पेंदे में छेद करके एक पात्र में रखदे जो पकावे, जब भष्टमांश शेष रह जाय तब भूमिमें गढा हो, और इस पात्रके चारों ओर उतारकर छान ले, इस क्वाथ को ठंडा करके | आरने उपलों की मंदी आग जलादेव। दूध के साथ सेवनकरे, फिर प्रति दिन एक ऐसा करने से उस छेदमें होकर जो रस एक भिलावा वदाता रहै, इक्कीस दिन तक टपके उसको दूसरे दिन लेकर उसमें अठइसी तरह करे, इक्कीस दिन पीछे प्रति गुना शहत और दुगुना घी मिलाकर पूर्वोक्त दिन तीन तीन बढावै. इस तरह ४० रीति से सेवन करने से उक्तफल की प्राप्ति भिलावे पर पहुंचकर जैसे बढाये थे उसी होती है । इसमें नियमपूर्वक रहना भावक्रम से घटावै, इस तरह सात सप्ताह में | श्यीय है। बढाने घटाने के क्रम से १००० मिळायों अमृतरसतुल्य पाक । का प्रयोग करे, तथा संयतात्मा होकर घी, पुष्टानि पाकेन परिच्युतानि दूध,शाली और साठी चांबलों का पथ्य करे। भल्लातकान्याढकसम्मितानि । मिलावे के प्रयोग के पीछे भी २१ सप्ताह घृष्टेष्टिकाचूर्णकगैजेलेन तक इसी तरह से हितकारी भोजनों को मक्षाल्य संशोध्य च मारुतेनं ॥ ५॥ जर्जराणि विपचेजलकुमे करता है, इस भल्लातर्फ रसायन के सेवन पावशेषधूतगालितशीते। करने से अपूर्व आशीर्वादों को प्राप्त करता तसं पुनरपि श्रपयेत हुआ जठराग्नि की वृद्धि को प्राप्त करताहै क्षीरकुंभसाहतं घरणस्थे ॥ ७६ ॥ तथा प्रमेह, कृमि,कुष्ठ, मर्श और मेदो दोष सर्पिः पक्कं तेन तुल्यप्रमाणं नष्ट होजाते हैं। युज्यात्स्वेच्छं शर्कराया रजोभिः । एकीभूतं तत्वजक्षोभणेन भल्लातकस्वरस प्रयोग। स्थाप्यं धान्ये सप्तरात्रं सुगुप्तम् ॥ पिष्टस्वदनमरुजैःपूर्ण भल्लातकैर्विजर्जरितः। तममृतरसपाक यः प्रगे प्राशमनन् भूमिनिखाते कुंभे प्रतिष्टितं कृष्णमृल्लिप्तम् ॥ अनु पिवति यथेष्ट वारिदुग्धं रसंघा। For Private And Personal Use Only

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