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पूरे ९० पृष्ठमें इस पुस्तक की अनुक्रमणिका है । इसके पीछे ४० पृष्ठ में वैद्यक के आचार्य ऋषिमुनियों का तथा कई प्रकार के वैधक शस्त्रसम्बन्धी यन्त्रों की तसवीरें दी हैं यन्त्रों के बनाने की विधि इस देश से लुप्त होगई है, इसीसे इन यन्त्रों की शकल अंगरेजी यन्त्रों से कागज पर सराशी गई है। शायद कोई बुद्धिमान चेष्टा करेगा तो धातु से भी बनाकर दिखा सकेगा। खैर कागज पर यन्त्रों की तसबीर की कल्पना पहिले बंगालियोंने की, पीछ यह और हुई । परन्तु इस महान् ग्रन्थको सम्पूर्ण हिन्दी में अनुवाद सहित छापकर पहिले पहल प्रकाश करने का यश मथुरापुरी के हिस्से में आया है इसके लिये लाला श्यामलालजी बधाई के पात्र हैं । इससे आगे मुख्य ग्रन्थ मूल संस्कृत और भाषानुवाद सहित है । १३४० पृष्ठ में समाप्त हुआ है । इस प्रकार. सारा ग्रन्थ मिलझुल कर १४७० पृष्ठ तक पहुंचता है छापा कागज अच्छे हैं । जिल्द भी खासी बंधी है अनुवाद ठीक शब्दार्थ या भावार्थही करके बस नहीं, की, वरञ्च मौके मौके पर व्याख्या भी अनुवादकर्ता महाशय करते चले आते हैं । यह ब्याख्या संस्कृत जाननेवाले लोग तो अर्थ से अलग पहचान ही लेंगे परन्तु कोरी भाषा का भरोसा रखनेवाले पृथक करने में सहजही समर्थ न होंगे वह उसे भी अनुवाद के अन्तर्गत समझेंगे अनुवाद की भाषा समझने के योग्य है, अच्छी है जहांतही नोटभी ग्रन्थकार ने लगाये हैं । बडा परिश्रम ग्रन्धकर्ता का सब विषयों को पृथक् २ करके उनकी तालिका बना देने में हुआ है । ९० पृष्ठकी लम्बी तालिका ग्रन्थ के सब विषय अलग अलग दिखा देती है । यह न होती तो इतने बड़े ग्रन्थ में कोई बात ढूंढ निकालना बडाही कठिन होता।
अनुवाद ग्रन्थकर्ता ने ध्यानसे किया है। और यह अच्छा किया है, कि जिन दवाओं के हिन्दी नाम में शक है, उनका संस्कृत नाम रहने दिया है। पुस्तक अच्छी हुई है।
राजस्थान समाचार
अजमेर १८ सितम्बर सन् १८९७ .. भगवान् धन्वन्तरजी ने कई शिष्यों सहित सुश्रुत नामक शिष्य को आयुर्वेद
का उपदेश किया और सुश्रुत ने फिर ग्रन्थ रचा उसका नाम मुश्रुत संहिता है जो इस समय तक आय्र्यों के आयुर्वेद का मुख्य ग्रन्थ माना जाता है। हमारे आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक ऐसी बातें लिखी है जो अबतक यूरोप के अत्यन्त
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