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मष्टांगहृदय ।
प्र.४०
चिकित्साशास्त्र का मंत्रवत्प्रयोग । निश्चयही दीर्घजीवन, आरोग्य, धर्म, अर्थ, इति तत्रगुणयुक्तं तंत्रदोषविवर्जितम्।
सुख और यशकी प्राप्ति होती है । चिकित्साशास्त्रमाखलं व्यापठ्य परितः । . स्थितम् ॥७७।
इम ग्रंथको श्रेष्ठत्व । विपुलामलविज्ञानमहामुनिमतानुगम् ।
एतत्पठन् संग्रहयोधशक्तः महासागरगंभीरसंग्रहायोपलक्षणम् ।।
स्वभ्यस्तकर्मा भिषगप्रकंप्यः । भष्टांगवैद्यकमहोदधिमंथनेन
आकंपयत्यन्यविशालतंत्र
कृताभियोगान्यदि तम चित्रम् ॥८२॥ योऽष्टांगसंग्रहमहामृतराशिराप्तः। तस्मादनल्पफलमल्पसमुद्यमानां ।
अर्थ-जो वैद्य इस अष्टांगहृदय को पढप्रीत्यर्थमेतदुदितं पृथगेव तंत्रम् ॥ ८०॥ कर इसके विषयों पर गूढ दृष्टि से आलोचना इदमागमसिद्धत्वात्प्रत्यक्षफलदर्शनात् । करके तदनुसार कर्ममें अभ्यास करता है मंत्रवत्संप्रयोक्तव्यं न मीमांस्यं कथंचन ८१ अर्थ-तंत्रके गुणोंसे युक्त और तंत्रके |
वह कभी किसी कार्यमें प्रकंपित नहीं होता दोषोंसे विवर्जित विपुल विमल विज्ञान से
| है । तथा चरकादि बडे बडे ग्रंथों के पढनेसंपन्न आत्रेयादि महामुनियों के मतके अनु
वालों को प्रकंपित करदेता है । इसमें कोई
आश्चर्यकी बात नहीं है। सार, तथा महासागररूप गंभीर संग्रह के निमित्त उपायभूत, अल्प उद्यमवाले मनुष्यों
उक्तकथन में हेतु ॥ को महत् फलका देनेवाला शल्यशालाक्यादि
यदि चरकमधीते ता ध्रुवं सुश्रुतादि
प्रणिगदितगदानां नाममात्रेऽपि बाह्यः अष्टांगसंपन्न आयुर्वेदरूप महासमुद्र के मंथन
अथ चरकविहीनः प्रक्रियायामखिन्न: से समुद्भूत, अमृतराशि स्वरूप इस अष्टां- किमिव खलु फरोतुव्याधितानांवराक: गहृदय नामक पृथक् ग्रंथका अच्छी तरह ___ अर्थ-चरकादि ग्रंथ बडे विशाल हैं पठन पाठन करना चाहिये । यह ग्रंथ | तथापि इनमें संपूर्ण विषयों का समाबेश । आयुर्वेदिक ग्रंथों के मतके अनुकूल है नहीं है। जो केवल चरक को पढताहे वह और प्रत्यक्ष फलको देनेवाला है, इसलिये
सुश्रुत में कहे हुए नेत्र रोगाधिकार में वर्ममंत्रवत् इसका प्रयोग करना चाहिये इसमें
गत, संधिगत, श्वेतमंडलगत, और कृष्णमंकिसी प्रकार का विचार करने का प्रयोजन डलादिगत चक्षरोगों के विशेष वर्णन को नहीं है।
नहीं जान सकता है क्योंकि चरक में इन उक्तांथ का फल । रोगों के केवल नाममात्र दिये गयेहैं, इनके दीर्घजीशितिगारोग्यं धर्ममर्थ सुखं यशः।। हेत, लक्षण और चिकित्सा का विशेषरूप पाठावबोधानुष्ठानैराधिगच्छत्यतो ध्रुवम् । से वर्णन नहीं किया गयाहै । चरफग्रंथ में
अर्थ-इस अष्टांगहृदय नामक ग्रंथका जिस रीतिसे खांसी श्वास आदि रोगों पाठ, अवबोध और अनुष्ठान करने से | का विशेषरूप से वर्णन किया गयाहै,सुश्रुत..
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