Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 1077
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ९८० ) www. kobatirth.org अष्टांगहृदय । अन्य प्रयोग || श्वदंष्ट्रेक्षुरमाषात्मगुप्ता बीजशतावरीः । पिवन् क्षीरेण जीर्णोऽपि गच्छति प्रमदाशतम् अर्थ - गोखरू, तालमखाना, उरद, कैंच के बीज, सितावर इनके चूर्ण को दूध के साथ सेवन करने से वृद्ध भी शतस्त्री संभोग की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । पौष्टिक प्रयोग || मधुरं निग्धं वृंहणं बलवर्धनम् । मनसो हर्षण यश्च तत्सर्व वृष्यमुच्यते ॥ अर्थ - जो जो पदार्थ मधुर, स्निग्ध, वृंहण, बलवर्दक और मनमें हर्षोत्पादक है वे सबही होते हैं । वृष्य संभोगविधि | द्रव्यैरेवविधैस्तस्माद्दर्पितः प्रमदां व्रजेत् । आत्मवेगेन चोदीर्णः स्त्रीगुणैश्च प्रहर्षितः अर्थ-- ऊपर कहे हुए पौष्टिक द्रव्यों के सेवन से दर्पित होकर आत्मवेग से उदीर्ण और स्त्रियों के गुणों से प्रहर्षित होकर स्त्री संगम में प्रवृत होना चाहिये । शब्द पेशादि का सेवन | सेग्याः सर्वेन्द्रियसुखा धर्मकल्पद्रुमांकुराः । विषयातिशयाः पंच शराः कुसुमधन्वनः ॥ अर्थ - धर्मरूप कल्पवृक्ष का अंकुर, तथा कामदेवका पंचबाणरूप, संपूर्ण इन्द्रियों को सुखदेनेवाले अत्यन्त मनोहर रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द का सेवन करना चाहिये । शब्दादियुक्त स्त्रीसेवन | sahasra हर्षप्रीतिकराः परम् । किं पुनः स्त्रीशरीरे ये संघातेन प्रतिष्ठिताः ॥ अर्थ - शब्दादि विषयों का अलग अलग सेवन करने से ही परम हर्ष और प्रीति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ४० उत्पन्न होती है । फिर जिस स्त्री के शरीर में ये पांचों ही शब्दादि विद्यमान है. उसका सेवन करने से कितना हर्ष और कितनी प्रीति होती है । योग्यत्री के लक्षण | नामापि यस्या हृदयोत्सवाय यांपश्यतां तृप्तिरनाप्तपूर्वा । सवैद्रियाकर्षणपाशभूतां कांतानुवृत्तिव्रत दीक्षिता या ॥ ३९ ॥ कलाविलासांगवयोविभूषा शुचिः सलजा रहसि प्रगल्भा । प्रियंवदा तुल्यमनःशया या सा स्त्री वृषत्वाय परं नरस्य ४० अर्थ - जिस स्त्री का नाम सुनने वा लेने ही से हृदय प्रफुल्लित होजाता है, जिस स्त्री के देखनेसे अपूर्व तृप्ति उत्पन्न होती है, जो स्त्री संपूर्ण इन्द्रियों का आकर्षण करने में रज्जुपाश ( फांसी ) के सदृश है, जिसे स्त्री ने अपने पति का चित्त प्रसन्न करने की दीक्षा पाई है, जिस स्त्री का नृत्यगीतादि ६४ कला, विलास ( हावभाव ), अंगलावण्य और यौवन ही आभूषण है । जो स्त्री भीतर और बाहर से पवित्र है, जो लज्जावती है, जो सुरत में प्रौढ है, जो स्त्री प्रियभाषिणी है, जिस स्त्रीका कामे | दीपन समान है, वह वाम लोचना स्त्री सब प्रकार से पुरुषकी सर्वप्रधान वृष्यकारिणी है । For Private And Personal Use Only कामशास्त्रोक्त रतिच । आचरेच्च सकलां रतिचर्या कामशास्त्रविहितामनवद्याम् । देशकालबलशक्तयनुरोधाद्वैद्यतंत्रसमयोकयविरुद्धाम् ॥ ४१ ॥

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