Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 1078
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ०४० www.kobatirth.org उत्तरस्थान भाषाकासमेत । अर्थ- कामशास्त्र में विहित अनिंद्य, देश | काल बल और शक्ति के अनुसार, वैद्यकशास्त्र कहे हुए आचार से अविरुद्ध रतिचर्या का आचरण करना चाहिये । . बाजीकरण प्रयोग | अभ्यंजनोद्वर्तन सेकगंधसृक्पत्रवस्त्राभरणप्रकाराः । गांधर्व काव्यादिकथाप्रबणाः समस्वभावा वरागा वयस्याः । दीर्घिकास्वभवनांत निविष्टा पद्मरेणुमधुमत्तविहंगा | नीलसानुगिरिकूटनितंबे काननानि पुरकंठगतानि ॥ ४३ ॥ दृष्टिसुखा विविधा तरुजातिः श्रोत्रसुखः कलकोकिलनादः । अंगसुख वशेन विभूषाचित्तसुखः सकलः परिवारः ॥ ४४ ॥ तांबूलमच्छमदिरा कांता कांता निशा शशांकांका यद्यच्च किचिदिष्टं मनसो वाजीकरं तत्तत् ॥ ४५ ॥ अर्थ - अभ्यंजन, उद्वर्तन, परिषेक, गंधमाला, पत्र, वस्त्र, आभरण, गान, काव्यादि, उत्तमोत्तम कथा, समान स्वभाववाले वशवर्ती मित्रगण, अपने घर के पास वाली क्रीडापुष्करिणी, पद्मरेणु, मधुमत्त विहंग, नगर के बाहर हरितवर्ण समधरातल भूपृष्ठ, शृंगयुक्त पर्वतों की तलहटी में स्थित कान न समूह, दृष्टि को सुख देनेवाले अनेक प्रकार - જે वृक्ष, कानों को सुख देनेवाला कोकिलरब अंगों को सुखदायक और ऋतु के अनुकूल भूषण, चित्तको सुखदेने वाला कुटुंब, तांबूल, अच्छ मदिरा, कमनीय कांता, निर्मल चां Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९८१ ) दनी से युक्त रात्रि, तथा मनको प्रसन्न करने वाले अन्यान्य विषय, ये सबही बाजी करण होते हैं । कामोत्पादक प्रयोग | मधुमुखामेव सोत्पलं प्रियायाः कलरणना परिवादिनी प्रियेव । कुसुमचयमनोरमा च शय्या किसलयिनी लतिकेव पुष्पिताग्रा ॥ देशे शरीरे च न काचिदर्तिरथेषु नाल्पोऽपि मनोविघातः । वाजीकराः सन्निहिताश्च योगाः कामस्य कामं परिपूरयति ॥ ४७ ॥ अर्थ- प्रिया के मुखके समान कमल सहित मादक मद, प्रिया के सदृश मधुर ध्वनिवाला बीणा, तथा कुसुमप्रधानकता की तरह फूलों की रमणीय शय्या | ये सब पदार्थ प्रधान बाजीकरण है । इनसे कामदेवकी भी कामना परिपूर्ण होती है । जिस स्थान में इन सबका समावेश होता है वहां उसपुरुष के किसी प्रकार की पीडा उत्पन्न नही होती है, और किसी विषय में कुछ भी मनोविधात नहीं होता है । आत्मसंग्रह | मुस्तापपेटकं ज्वरे तृषि जलं मृद्भृष्टलोष्टोद्भवं लाजाच्छर्दिषु वस्तिजेषु गिरिजं मेहेषुधात्रीनिशे । पांडौ श्रेष्ठमयोभयनिलक फेलीद्दामये पिप्पली संघाने कृमिजा विषे शुक तरु में दे। ऽनिले गुग्गुलुः ॥ ४८ ॥ वृषोऽत्रपित्ते कुटजोऽतिसारे भल्लातको सुगरेषु हेम । 'स्थषु ता कृमिषु कृमिघ्नं शोषे सुराच्छागपयोऽनुमांसम् ॥ For Private And Personal Use Only

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