Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 1080
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थान भाषाटीकासमैत । (१८३ ) भेडादीनां समतो भक्तिनम्रः । श्चित है और आयुर्वेद शास्त्र क्या आज्ञा पप्रच्छेद संशयानोऽग्निबेशः ॥ ५९॥ देता है । इसलिये काकदंतपरीक्षा शास्त्रवत् अर्थ भक्ति से नम्र अग्निवेशने पुन इसका आरंभ निष्फल है । ऐसे प्रश्न के र्वसु के शिष्य भेड जातुकर्णादिक की संमति करनेवाले अग्निवेश प्रमुख संपूर्ण शिष्यों से पूर्वोक्त रीति से भगवान् आत्रेय के मुख को महर्षि पुनर्वसु ने यथार्थ तत्व का इस से युक्तियुक्त अर्थो से प्रतिपादित मधुर भांति उपदेश दिया। सूत्रों की व्याख्या से अतृप्त होकर और प्रश्न का उत्तर । भी अधिक ज्ञान प्राप्ति की कामना से नचिकित्साऽचिकित्साचतुल्याभवितुमर्हति नीचे लिखा हुआ प्रश्न किया । | विनापि क्रिययाऽस्वास्थ्यं गच्छतांषोडशां प्रश्न का स्वरूप । शया ॥ दृश्यते भगवन् फेचिदात्मवंतोऽपि रोगिणः अर्थ-चिकित्सा और अचिकित्सा कभी द्रव्योपस्थातृसंपन्ना बृद्धवैद्यमतानुगाः॥ षोडशांश में भी समान नहीं होसकती हैं। क्षीयमाणामयप्राणा विपरीतास्तथापरे।। चिकित्सा के बिना भी जिस जगह रोगकी हिताहितविभागस्य फलं तस्मादनिश्चितम् शांति देखने में आती है उस जगह भी किं शास्ति शास्त्रमंस्मिनिति कल्पयतोऽग्निवेशमुख्यस्य । चिकित्सा करने पर रोग शीघ्र शांत हो शिष्यगणस्य पुनर्वसु जाता है। तथा रोहिणीकादि कितने ही राचख्यौ कात्य॑तस्तत्त्वम् ॥६२॥ ऐसे रोग हैं जहां बिना चिकित्साके किसी अर्थ-आग्नि शने पूछा, हे भगवान् तरह शांति नहीं होसकती है । इसलिय पुनर्वसो ! हमारे देखने में आता है कि | चिकित्सा और अचिकित्सा कभी बराबर कितने ही लोग हितकारी आहार विहार नहीं होसकते हैं। करते करते भी रोगग्रस्त होते हैं । अनेक उपयोगी औषध, कार्यकुशल परिचारक, उक्त उत्तर में दृष्टांत । | आतंकपंकमग्नानां हस्तालंवा भिषग्जितम् । और बहुदर्शी सुशिक्षित चिकित्सक उपस्थित जीवितं म्रियमाणानां सर्वेषामेव नौषधात॥ होने पर भी रोग की शान्ति नहीं होती ___ अर्थ-रोगरूप कीचड में फंसे हुए है । और यह भी देखने में आता है कि मनुष्यों के लिये औषध को हस्तावलंवके कितने ही लोग विपरीत आहार विहार के | के सदश जानना चाहिये अर्थात जैसे कीचड करते रहने पर भी रोग से मुक्त होजाते | में फंसे हुए मनुष्य को हाथका सहारा हैं, कितने ही मर भी जाते हैं। इन सब देकर निकालने का यत्न किया जाता है, बातों के देखने से हिसाहित विभाग का | वैसे ही रोग में फंसे हुए आदमी को भी फल अत्यन्त अनिश्चित और संशयात्मक | औषध देकर उसे रोगमुक्त करने का यत्न प्रतीत होता है। और यदि फल अनि किया जाता है । और मो सब तरह से For Private And Personal Use Only

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