Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 1066
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म०३९ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेव । (९६९) अर्थ-पित्त और रक्त के सिवाय अन्य | नात्युष्ण, पाक में कटु और अतिशय आवरणों से आवृत बायुमें अथवा आवरण छेदनकर्ता होता है । इन में से लोहज रहित केवल शुद्ध वायुमें लहसन के समान शिलानीत सव से उत्तम होता है । और कोई दूसरी औषध नहीं है। उत्तम शिलाजीत के लक्षण । - लहसन को विपज्जनकत्व। | गोमूत्रगंधि कृष्णंगुग्गुल्वाभविशकरमृत्तम् प्रियांबुगुडदुग्धस्य मांसमधाम्लविद्विषः। | निग्धमनम्लकषांय मृदु गुरु व शिलाजतु. अतितिक्षोरजीर्ण च रसोनोव्यापदे ध्रुवम् । श्रेष्ठम् ॥ १३४॥ | अर्थ -जो शिलाजीत गोमुत्र की सी ___ अर्थ-जल, गुड और दूधस प्रेम रखने वाले को तथा मांस, मद्य और अन्न से द्वेष | गंध से युक्त, काला, देखने में गूगल के रखने वाले को और अजीर्ण रोगीको लहसन । सदृश, शर्करारहित, मिट्टी से मिला हुआ, अवश्य ही व्याधिकारक है। स्निग्ध, खटाई से रहित, कषायरसयुक्त मृदु और गुरु होता है, वही श्रेष्ठ होताहै । लहसनके प्रयोगमें विरेचन । शिलाजीत की भावना विधि। . पित्तकोपभयादंते युज्यान्मृदु विरेचनम् । रसायनगुणानेवं परिपूर्णान्समश्नुते ॥ व्याधिव्याधितसात्म्य समनुस्मरन् भावयेदवापारे। अर्थ-पित्तके प्रकोपको दूर करने के निमित्त प्राक् फेवलजलधौतं लहसन के प्रयोग के पीछे मृदु विरेचन देना । शुष्कं काथैस्ततो भाव्यम् ॥ १३४॥ चाहिये । ऐसा करने से रसायन के संपूर्ण अर्थ--शिलाजीत को लोहे के पात्र में गुणों की प्राप्ति हो जायगी। रखकर प्रथम जल से धोडाले, फिर इसको शिलाजीत का कल्क। सुखाकर रोग और रोगी दोनों को अनुकूल ग्रीष्मेऽर्कतप्ता गिरयो जतुतुल्यं वमंति यत् | हो उसी तरह से काथ के द्रव्यको स्थिर हेमाविषडधातुरसं प्रोच्यते तच्छिलाजतु ॥ करके उनके काढे की भावना देखें । अर्थ-ग्रीष्मऋतु में पर्वतों के अत्यन्त भावना की विधि। गरम होजाने से जतु के. समान जो पदार्थ समगिरिजमष्टगुणिते निकाथ्यं भावनौषधं निकलता है, वह सुवर्णादि छ: प्रकार की तोय। धातुओं का रस होता है । इसी रस को तभिहेऽष्टांशे पूतोष्णे प्रक्षिपेत् गिरिजम् ॥ शिलाजतु कहते हैं। तत्समरसतां यातं संशुष्क प्रक्षिपेद्रसे भूयः | स्वैः स्वैरेवं काथर्भाग्यं वारान् भवेत्सप्त। शिलाजीत के लक्षण । सर्वच तिक्तकटुक नात्युष्णं कटुपाकतः। ___ अर्थ-जितना शिलाजीत हो, उतना छेदन च विशेषेण लौह तत्र प्रशस्यते ॥ | ही क्वाथ द्रव्य लेकर उसको अठगुने जल अर्थ-सब शिलाजीत छः प्रकार की में भौटावे, अष्टमांश शेष रहने पर उतार धातुओं से उत्पन्न होने पर भी तितकटु, कर छानले और इस गरम काढ़े में शिला १२२ For Private And Personal Use Only

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