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मष्टांगहृदय ।
अ० ३६
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भारापन, मूळ, अविपाक और अतिसार | जाती है । पांचवें वेग में गात्रभंग, बर होता है । सातवें वेग में विष शुक्र में पहुँच | और शीत, छटे और सातवें वेग में ये सब कर कंधा, पीठ, और कमर में टूटने कीसी | लक्षण उपस्थित होतेहैं, जो दर्वीकार बिषों पीडा पैदा होती है तथा शारीरक और | के छटे सातवें वेग में होते हैं । मानसिक चेष्टाओं का सब प्रकार नाश वेगों का साध्यासाध्यत्व । करदेता है।
कुर्यात्पंचसु वेगेषु चिकित्सां न ततः परम् - मण्डलिदष्ट के वेगों का लक्षण।
अर्थ-प्रथम वेग से पांचवें वेग तक अथ मंडलिदष्टस्य दुष्टं पीतीभवत्यसक्।
चिकित्सा करनी चाहिये । इससे आगे तेन पीतांगता दाहो द्वितीये श्वयथूद्भवः ।
असाध्य समझकर चिकित्सा न करै । तृतीये दंशविक्लेदः स्वेदस्तृष्णा च जायते । चतुर्थे ज्वर्यते दाह पंचमे सर्वगागः ॥ जल के सपों का वर्णन । • अर्थ-मण्डली सर्प के विष के प्रथम | जलाप्लुता रतिक्षीणा भीता नकुलनिर्जिताः वेग में रक्त दूषित और पीतवर्ण हो जाताहै । शीतवातातपव्याधिक्षुत्तष्णाश्रमपीडिताः ।
तूर्ण देशांतरायाता विमुक्तविषकंचुकाः। इसी से देह में पीलापन और दाह पैदा हो
कुशौषधीकंटकबद्ये चरति च काननम् । जाता है, दूसरे वेग में सूजन, तीसरे वेग | देशं च दिव्याध्युषितं सर्पस्तेऽल्पविषामताः में पसीना, तृषा और दंशस्थान में क्ले दता, अर्थ-जल में रहनेवाले, रतिक्रिया से चौथे वेग में ज्वर, और दाह और पांचवें |
क्षीण, डरे हुए, नकुल द्वारा पराजित, शीत वेग में सम्पूर्ण देहं में दाह पैदा होजाता है। वात आतप रोग क्षुधा तृषा और श्रम से - राजिमान के वेगों के लक्षण । पीडित, अन्य देश से शीघ्र आया हुआ, दष्टस्य राजिलैर्दुष्टं पांडुतां याति शोणितम् जिसने काचली छोडदी हो जो कुशा पांडता तेन गात्राणां द्वितीये गुरुताऽति
औषधों और कांटों के बन में घूमते हैं ।
च ॥ २५॥ तृतीये देशविश्लेदो नासिकाक्षिमखन्नवाः। | जो देवताओं के स्थान में निवास करते हैं, चतुर्थे गरिमा मूों मन्यास्तंभश्च पंचमे ॥ | ये सब अल्प विषवाले होते हैं । गात्रभंगो ज्वरः शीतः शेषयोः पूर्ववद्वदेत् | त्याज्य विषदष्ट के लक्षण । . अर्थ-राजिमान सर्प के विष के प्रथम
श्मशानचितिचैत्यादौ पंचमीपक्षसंधिषु । बेग में बिगड़ा हुआ रक्त पीला पड़जाता है |
| भष्टमीनवमीसंध्यामध्यरात्रिदिनेषु च । और इसी से देह भी पांडुवर्ण होनाता है। याम्याग्नयमघालेणविशाखापूर्वनैवते । दूसरे वेग में देह में मारापन, तीसरे वेग में | नैर्ऋताख्ये मुहूर्ते च वष्टं मर्मसु च त्यजेत् दंशस्थान में क्लेद तथा मुख, नाक और | दष्टमा
दष्टमात्रः सितास्याक्षः शीर्यमाणशिरोरुहः नेत्रों से स्राव होने लगताहै । चौथे वेग में |
| स्तब्धजिद्दो मुहुर्मुर्छन् शीतोच्छवासो न
जीवति । मस्तक में भारापन और मन्या स्तंभित हो । अर्थ-मरघट, ईंटों का पंजावा, बौद्धों
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