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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
की तरह मांसमें छिद्र होकर निरंतर रुधिर बहता हो उसे दष्टनिपीडित कहते हैं । इनमें से पहिले दो निर्विष होने के कारण साध्य है, बीच दो कष्टसाध्य हैं और पांचवां दष्टनिपीडित असाध्य होता है ।
रक्तमें मिलकर विषका बढना । विषं नायमप्राप्य रक्तं दूषयते वपुः ॥ १४ ॥ रक्तमण्वपि तु प्राप्तं वर्धते तैलमंबुवत् ।
अर्थ- सर्पका विष रक्तसे बिना मिले शरीर में नहीं फैलता है, रक्त से मिलकर ही देह को नष्ट कर देता है, विष किंचिन्मात्र रक्त से मिलजाने पर भी शरीर में चारों और ऐसे व्याप्त हो जाता है, जैसे पानी के संसर्ग से तेल फैलता चला जाता है ।
सर्पा गाभिहत के लक्षण | भरोस्तु सर्प संस्पर्शाद्भयेन कुपितो मिलः ॥ कदाचित्कुरुत शोफ सर्पगाभिहतं तु तत् ।
अर्थ - डरपोक आदमी के सर्पका स्पर्श हो जाने से जो भय उत्पन्न होता है, उससे कभी कभी सूजन पैदा हो जाती है, उसे
गाभिहत कहते हैं ।
शंकाविष के लक्षण | दुरंधकारे विद्धस्य केनचिद्दष्टशंकया विषोद्वेगो ज्वरच्छर्दिर्मूर्छादाहोऽपिवा भवेत् ग्लानिर्मोहोतिसारो वा तच्छंकाविषमुच्यते
अर्थ - यदि अत्यंत अंधकार में कोई जंतु काट खाय और यह मालूम न हो सके कि 'किसने काटा है और सर्प के काटने की शंका हो तो विषोद्वेग, ज्वर, वमन, मूर्च्छा, दाह, ग्लानि, मोह और अतिसार उत्पन्न होता है। इसी को शंकाविष कहते हैं ।
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( ९३१ )
विषनिर्विषदंश के लक्षण | तुद्यते सविषो दंशः कंङ्कशोफरुजान्वितः । दाते प्रथितः किंचिद्विपरीतस्तु निर्विषः ॥
अर्थ - जिस दंशमें सुई छिदने की सी पीडा, खुजली, सूजन, वेदना और दाह होता है तथा कुछ गांठ सी दिखाई देती है, उसे सविषदंश कहते हैं और इसके विपरीत लक्षण हो अर्थात्, तोदादि न हो तो निर्विष समझना चाहिये ।
करादि का प्रथम वेग | पूर्वे दर्वीकृत वेगे दुष्टं स्रावीभवत्यसृक् । श्यावता तेन वक्त्रादौ सर्पतवि च कीटकाः
अर्थ- दर्वीकर सर्पों के विष के प्रथम वेग में श्याववर्ण दूषित रक्तका स्राव होता है । ऐसे विषके कारण काटे हुए व्यक्ति का मुख नासिका आदि श्यावंर्ण हो जाते हैं और सब देहमें चींटियां सी चलने लगती हैं ।
वकरके द्वितीयादि वेग । द्वितीये ग्रंथयो वेगे तृतीये मूर्ध्नि गौरवम् । दुर्गंधो वंशधिक्केदश्चतुर्थे ष्ठीवनं वमिः ॥ संधिविश्लेषणं तंद्रा पंचमे पर्वभेदनम् । दाहो हिष्मा च षष्ठे च हृत्पीड़ा गात्रगौरवम् मूर्छा विपाकोऽतीसारः प्राप्य शुक्रं तु सप्तमे स्कंधपृष्ठकटभिंगः सर्वचेष्टानिवर्तनम् ॥
अर्थ-दवाकर सर्पों के विष के दूसरे वेग में देह में ग्रंथि पैदा होजाती है । तीसरे वेग में मस्तक में भारापन, देह में दुर्गंध और दंश में क्लेद पैदा होजाता है । चौथे वेग में ष्ठीवन, वमन, संधिविश्लेषण और तन्द्रा होती है । पांचवें वेग में संधिविश्लेष तन्द्रा, वमन, पर्वभेद, दाह और हिमा होते हैं । छटे वेग में हृदय पीड़ा, देह में
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