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। ९३८)
अष्टांगहृदयः ।
और शीतल परिषेक करके तीक्ष्ण वमन दे | सर्वबिषनाशक पान । कर विषनाशक यवागू पान करीव । सातवें वामनोहानिशे वक्र रसः शालजो नखः । वेगमें तक्षिण अगद की नस्य और अंजन
तमालः केसरं शीतपीतं संदुलवारिणा। देवै । तत्पश्चात् शस्त्रद्वारा मस्तक पर गाढ
हति सर्वविषाण्येतद्वज्रिबज्रमिवासुरान् ॥
___ अर्थ-दालचीनी, मनसिल, हलदी, तर काकपद चिन्ह करके उसमें रुधिर सहित मांस और चमडा लगाये।
दारुहलदी, तगर, गंधरस, . व्याघनख, __ मंडलीसर्पके वेगोंका उपाय ।।
तमाल और नागकेसर इने सबको ठंडे पानी तृतीये वमितः पेयां वेगे मंडलिनां पिवेत्।। में पीसकर तंडुल जल के साथ पान करे। अतीक्ष्णमगद षष्ठे गणं वा पद्मकादिकम् ॥ यह औषध सम्पूर्ण विषों को इस तरह दूर अर्थ-मंडली सर्पके तीसरे वेगमें वमन :
| करदेती है जैसे इन्द्र का वज असुरों का कराके पेया पान करावे । छटे वेगमें अती- | नाश करदेता है । क्ष्ण अगद और पनकादिगण का प्रयोग
आतों का अञ्जन । करना चाहिये ।
विल्यस्य मूलं सुरसस्य पुष्पं राजिमान के वेगों में कर्तव्य । फलं करंजस्य नतं सुराहम् । मायेषगाढं प्रच्छाय वेगे दष्टस्य राजिलैः। फलत्रिकं व्योषनिशाद्वयं च मलाबुना हरेद्रक्तं पूर्ववश्चागदं पिवेत् ॥ चस्तस्य मूत्रेण सुसूक्ष्मापिष्टम् ॥ षष्ठेऽजमं तीक्ष्णतममवपीडं च योजयेत् ।
भुजंगलूतांदुरवृश्चिकाधैअर्थ-राजिमान सोंके प्रथम वेगमें विचिकाजीर्णगरज्वरैश्च । शस्त्रद्वारा दंशस्थान को चीरकर अलाबू यंत्र
आन्निरान् भूतषिधर्षितांश्च
स्वस्थीकरोत्यजनपामनस्यैः ॥ ८५ ॥ द्वारा रक्त. निकाल डालै तदनंतर पूर्ववत्
अर्थ-बेल की जड़, तुलसी की मंजरी, अगद पान करावै । छटे वेगमें अत्यन्त तीक्ष्ण | कंजा, तगर, देवदारु, त्रिफला, त्रिकुटा, अंजन और अयपीडन का प्रयोग करे। दोनों हलदी, इन सबको बंकरी के मूत्र में अनुक्त वेगोंमें कर्तव्य ।
बारीक पीस ले, इसका अंजन, पान और अनुक्तेषु च गेषु क्रियां दर्वीकरोदिताम् । अर्थ-जिन, वेगों का वर्णन नहीं किया
नस्यद्वारा प्रयोग करने से सर्प, मकड़ी, गया है उनमें दर्वीकर सर्पके कहे हुए उन
चूहा, बिच्छू, इनके बिष तथा विसूचिका उन वेगों के सदृश चिकित्सा करे ।
अजीर्ण, विषज्वर और भूतवेग से पीडित
रोगी स्वस्थ होजाते हैं। - गर्भिण्यादि की चिकित्सा ।
प्रलेपादि। गर्भिणीवालवृद्धेषु मृदुं विध्यत्तिरां न च । प्रलेपाश्चि निःशेष दशादप्युद्धद्विषम् । ___ अर्थ-गभिणी स्त्री, बालक वा वृद्ध | भूयो वेगाय जायत शेषं दूषीविषाय वा ॥ को सर्प ने काटा हो तो मद् क्रिया करना अर्थ-प्रलेपादि द्वारा दंशस्थान ही से चाहिये, इनका सिरायाध कदापि न करे। नहीं किंत सब देह से विषको निकालडाले,
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