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( ९२८)
अष्टांगहृदय ।
अर्थ-विषसे पीडित रोगी में यदि इन
वैवको उपदेश। ..... सब का समावेश हो अर्थात् उसकी प्रकृति इति प्रकृतिसात्म्यर्तुस्थानवेगवलावलम् । पदि पैत्तिक हो, विषार्त होने का काल वर्षा | आलोच्य निपुण धुम्या कर्मानंतरमाचरेत् । हो, भोजन यदि सर्पपादि हो, दोष यदि पित्त ___ अर्थ-इस तरह प्रकृति, सात्म्य, ऋतु, हो, दूष्य यदि रक्त हो तो इन सब बातोंके स्थान, विषका वेग, रोगी का बलाबल इन होने पर सौ रोगियों में से एक भी बचे वा| सब बातों को बिचारकर चिकित्सा में प्रवृत्त न बचे, यह संदेह है । विषप्रकृत्यादि सब होना चाहिये । योगों को विषसंकट कहते हैं।
कफज विषमें कर्तव्य ।। क्षुधादि द्वारा विषकी वृद्धि। लप्मिकं धमनैरुष्णरूक्षतीक्ष्णैः प्रलेपनः । क्षुत्तष्णाघर्मदौर्बल्यक्रोधशोकभयश्रमैः। कषायकतिक्तैश्च भोजनैः शमयेद्विषम् ॥ अजीर्णव) द्रवतः पित्तमारुतवृद्धिभिः ॥ | अर्थ-कफज विषकी शांति के लिये तिलपुष्पफलाघ्राणभूवाष्पधनगर्जितैः । उष्ण, रूक्ष और तीक्ष्ण द्रव्यों द्वारा यमन, हस्तिमूषिकवादित्रनिःस्वर्विषसंकटैः॥ । पुरोवातोत्पलामोदमदनैर्वधते विषम्।।
तथा इन्हीं के द्वारा लेप और कषाय, कटु ___ अर्थ क्षुधा, तृषा, पसीना, दुर्बलता,क्रोध , तथा तिक्त द्रव्यों के भोजन देवै । शोक, भय, परिश्रम, अजीर्ण, मलकी द्रवता,
पैत्तिक विषमें कर्तव्य । पित्तवात की वृद्धि, तिलके फूल और फलों
पैत्तिकं घसनः सेकप्रदेह शशीतलैः । का सूचना, भूवाष्प ( पृथ्वी की भाप अर्थात्
कषायतिक्तमधुरैर्वृतयुक्तश्च भाजनैः ॥ भबखरे) मेघधनि,हाथी और चूहे की खाल
___ अर्थ-विरेचन, अत्यन्त शीतल परिषेक से मढे हुए बाजों का शब्द, विषसंकट,
और लेप तथा कषाय,तिक्त और मधुर द्रव्य पुरोबात, उत्पल, आमोद और मदनप्रावल्य
घृतयुक्त का आहार कराके पैत्तिक विषको से विष की वृद्धि होती है।
शांत करना चाहिये। ...शरदमें विपकी मंदवीर्यता ।
वातिकविषका उपाय । पर्वासु चांबुयोनित्वात्संक्लेदं गुडवगतम् ॥ धातारमकंजयेत्स्वादुनिग्धाम्ललवविसर्पति घनापाये तदगस्त्यो हिनस्ति च ।
णान्वितैः। प्रयाति मंदवीर्यत्वं विष तस्मादूधनात्यये ॥ | सतै जनतेपैस्तथैव पिशिताशनैः॥ - अर्थ-वर्षाऋतु जल की योनि है, इस माघृतं संसन शस्तं प्रलेपो भोज्यमषिधम् । लिये सब वस्तु क्लिन्न हो जाती हैं । इसलिये अथ-वातिकविषको मधुर, अम्ल और इस ऋतु में विष गुढके समान क्लिन्न होकर लवणरस युक्त वृतसहित भोजन द्वारा, लेप शरीर में फैल जाता है और वर्षा के दूर द्वारा,कषायतिक्त और मधुर रसान्वित मघृत होनेपर शरद ऋतुमें अगस्त्यरूप विषको नष्ट मांसका भोजन देकर शांत करना चाहिये । कर देता है, इसलिये इस ऋतुमें विष को विषरोग में घृतहीन विरेचन, प्रलेप, भोजन मन्दता हो जाती है। ..... ... वा कोई औषध प्रयोग न करनी चाहिये ।
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