________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अ० २५
www.kobatirth.org
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
वरभ्रंश, श्वास, खांसी और अर्दित रोग जाते रहते हैं । यह योनिरोग और वीर्यरोग में हितकारक है, इसके सेवन से वन्ध्या स्त्री के भी पुत्र होजाता है । अन्य प्रयोग |
आखुभिः कर्केट है सैः शशैबेति प्रकल्पयेत् अर्थ- चूहा, केंकडा, हंस और खर्गेश के मासों से भी ऊपर लिखी रीति से घृत तयार किया जाता है ।
रोगों की संख्या ।
जनूर्ध्वजानां व्याधीनामेकत्रिंशशतद्वयम् । परस्परमसंकीर्ण विस्तरेण प्रकाशितम् ॥
अर्थ-जत्रु से ऊपर के भाग में होनेवाले २३१ रोग हैं, ये परस्पर असंकीर्ण हैं और विस्तार सहित वर्णन किये गये हैं ।
उक्त रोगकी चिकित्सा में शीघ्रता । ऊर्ध्वमूलमधःशाखमृषयः पुरुषं विदुः । मूलप्रहारिणस्तस्मादु रोगान् शीघ्रतरं जयेत्
अर्थ-ऋषियोंने पुरुषोंको ऊर्ध्वमूल और अधःशाख कहकर शास्त्रोंमें वर्णन किया है । ( गीता में इसका सविस्तर वर्णन लिखा है ) इस लिये मूल को प्रहार करनेवाले इन ऊ जत्रुगत रोगों की चिकित्सा में बहुत शीघ्रता करनी चाहिये ।
वैद्य को उपदेश |
सर्वेद्रियाणि येनास्मिन् प्राणायेनच संश्रिताः तेन तस्योत्तमांगस्य रक्षायामादृतो भवेत् ॥
अर्थ - उत्तमांग अर्थात् सिर ही सम्पूर्ण इन्द्रियों का अधिष्ठान हैं और सिर ही में
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रक्षा के निमित्त बहुत सावधानी रखनी चाहिये |
इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा टीकावन्तायां उत्तरस्थाने शिरोरोग प्रतिषेधो नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ।
( ८६३ )
पंचविंशोऽध्यायः ।
-->
--::
अथाऽतो व्रणविज्ञानीयप्रतिषेधं
For Private And Personal Use Only
व्याख्यास्यामः ।
अर्थ- - अब हम यहांसे व्रणविज्ञानीय प्रतिषेधनामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे |
व्रणको द्विविधत्व | व्रणो द्विधा निजांगंतु दुष्टशुद्धविभेदतः । निजो दोषैः शरीरात्थैरागंतुर्बाह्यहेतुजः ॥ दोषैरधिष्ठितो दुष्टःशुद्धस्तैरनिधिष्टितः ।
अर्थ - निज और आगंतु इन दो भेदों से व्रण दो प्रकार का होता है । व्रणके दो भेद और भी हैं, एक दुष्टम्रण दूसरा शुद्ध व्रण, जो घाव शारीरक दोषों से होता है उसे निज तथा जो वाह्य अर्थात् ईंट, पत्थर, लाठी आदि की चोट लगने से होता है उसे आगंतु व्रण कहते हैं । जो घाव घातादि . दोषों से दूषित होता है उसे दुष्ट और जो वातादि दोषों से रहित होता है उसे शुद्ध व्रण कहते हैं ।
संवृतत्वं विवृतता काठिन्यं मृदुताऽपि वा दुष्टत्रण की आकृति । अत्युत्सन्नावसन्नत्वमत्यौष्ण्यमतिशतिता ।
प्राणों की स्थिति होती है, इस लिये इसकी | रक्तत्वं पांडुता का पूतिपूयपरिस्स्रुतिः ।
ام