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( ९२२)
अष्टांगहृदया
अ. ३५
कृत्रिम गरसंक्षं तु क्रियते विविधौषधैः। । है, तदनंतर कफ वात पित्त इन तीनो दोषों ति योगवशेनाशु चिराचिरतराच्च तत् । को तथा इनके स्थानों को भी दूषित कर शोफपांडूदरोन्माददुर्नामादीन् करोति च ।
| देता है, तत्पश्चात् दोषों के साथ हृदय में अर्थ-स्थाबर और जंगम ये दोनों प्रकार के विष अकृत्रिम होते हैं । और
स्थित होकर देह को नष्ट कर देता है । गरविष कृत्रिम होता है, अनेक औषधियों के
प्रथम वेम के लक्षण ।
स्थावरस्यापयुक्तस्य वेगे पूर्व प्रजायते । संयोग से गरविष उत्पन्न होता है, गरबिष
जिह्वायाःश्यावतास्तंभोमूत्रासालमोवमिः योग के वश से वहुत शीघ्र वा वहुत काल अर्थ-स्थ:वर विष के शरीर में स्थित में मारता है, तथा शोफ, पांडुरोग, उदर- होने पर उसके प्रथम बेग में जिहवा में रोग, उन्माद, और अर्शादि रोगों को
कालापन, जकडन, मूर्छा, त्रास, क्वांति और उत्पन्न करता है।
वमन होती है । विष के गुण ।
दूसरा वेग! तीक्ष्णोष्णरूक्षविशदं व्यवाय्याशुकरं लघु ।
द्वितीये वेपथुः स्वेदो दाहः कंठे च वेदना। विकाशि सूक्ष्ममव्यक्तरसं विषमपाकि च ।। अर्थ-सब प्रकार के विष तीक्ष्ण,
| विषं चामाशयं प्राप्तं कुरुते हदि घेदनाम् ।
___ अर्थ-बिष के दूसरे वेग में कम्पन, उष्णवीर्य, रूक्ष, विशद, व्यवायी, आशु
पसीना, दाह और कण्ठ में वेदना होती है, कारी, लघु, बिकाशी, सूक्ष्म, अव्यक्तरस,
तथा आमाशय में पहुँचकर हृदय में वेदना और बिषमपाकी होते हैं।
करता है। विषको प्राणनाशकत्व।।
तीसरा वेग । भोजसो विपरीतं तत् तीक्ष्णायैरन्वितगुणैः वातपित्तोत्तरं नृणां सद्यो हरति जीवितम्
तालुशोषस्तृतीये तु शूलं चामाशये भृशम्
दुर्वले हरिते शूने आयेते चास्य लोचमे । अर्थ-बिष में तीक्ष्णादि दस गुण होते
म ताक्षणादि दस गुण होतं | पक्काशयगते तोदहिध्माकासांत्रकूजनम् । है, इस से यह ओज के विपरीत होता है,
____ अर्थ-विष के तीसरे वेग में ताल का तथा वात और पित्त की अधिकता के कारण | सुखना, आमाशय में शूल छिदने कीसी प्राणों का तत्काल नाश करनेवाला है। | अत्यंत बेदना, तथा दोनों नेत्रों में दुर्बलता
प्राणनाशका हेतु। हरापन और सूजन होती है । इसके पक्काविषं हिदेहं संप्राप्य प्राग दूषयति शोणितम् । शय में पहुँचने पर सुई छिदने कीसी वेदना कफपित्तानिलाश्चानुसमंदोषान्सहाशयान | हिचकी, खांसी और आंतों में कूजन ततो हृदयमास्थाय देहोच्छेदाय कल्प्यते। । होती है।
अर्थ-बिष शरीरमें व्याप्त होकर प्रथम - चौथा वेग। ही सर्वशरीरगामी रक्त को दूषित करदेता चतुर्थे जायते वेगे शिरसश्चातिगौरवम् ।
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