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(८७८)
अष्टांगहृदय ।
अ० २७
किया जायगा ॥
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- अर्थ-विश्लिष्टदेह, मथित, क्षीण और | हैं। मंगभेद से इसके अनेक भेद हैं, इस मर्माहत रोगी को तेल की भरी हुई द्राणीमें भंगभेद के यथायोग्य उपायों का वर्णन बैठावे और मांसरसका भोजन करावै ॥ इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटी
दुःसाध्य भंग । कान्वितायां उत्तरस्थाने सद्योव्रणप्र-प्राज्याणुदारियत्त्वस्थिस्पर्शशब्दंकरोतियत् तिषेधो नाम षड्विंशोऽध्यायः।। यत्राऽस्थिलेशः प्रविशेन्मध्यमरथ्नो
विदारितः ।
भग्नं यच्चाभिघातेन किंचिदेवावशेषितम् ॥ सप्तविंशोऽध्यायः। उन्नम्यमानं क्षतवद्यश्च मज्जनि मज्जति ।
तद्दुः साध्यं कृशाशक्तवातलाल्पाशिनामपि -20550
___ अर्थ-जिस अस्थि में छोटी २ दरारे अथाऽतो भंगप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः।
पडगई हों, जिसके छूने में शब्द होता हो, अर्थ-अब हम यहांसे भंगप्रतिषेधनामक
जिसकी दरार में दूसरी अस्थि के कण अध्याय की व्याख्या करेंगे।
घुसगये हों, जो चोट लगने से टूट कर भंग के दो भेद। पातघातादिभिर्द्वधा भंगोऽस्थ्नां संध्यसधित
थोडी सी जुडी रहगई हो, जिसको उठाने प्रसारणाकुंचनयोरशक्तिः संधिमुक्तता ॥
से घाव सा दिखाई दे, जो मज्जा के भीतर इतरस्मिन्भृशं शोफः सर्वावस्थास्वतिव्यथा गपक गई हो वह अस्थिभंग दुःसाध्य होता अशक्तिश्चेष्टितेऽल्पेऽपिपीडथमाने- है। तथा कृश, असमर्थ, वातल और
सशब्दता ॥२॥
अल्पाशी मनुष्यों का अस्थिभंग भी असाध्य समासादिति भंगस्य लक्षणं बहुधा तु तत्। भिद्यते भंगभेदेन तस्य सर्वस्य साधनम् ।
| होता है । यथा स्यादुपयोगाय तथा तदुपदेक्ष्यते । । अन्य वर्जित अस्थि ।
अर्थ-गिरने से वा चोट लगने से अ-भिन्नं कपालं यत् कटयां संधिमुक्तं . स्थियों का भंग दो प्रकार का होता है। एक
च्युतं च यत् ।
| जघनं प्रति पिष्टं च भग्नं यत्तद्विवर्जयेत् । संधिभंग, दुसरा कांडभंग, संधिभंगमें अंगके
__ अर्थ-कमर की जो अस्थि टूटगई हो, फैलाने वा सकोडने में सामर्थ्य नहीं रहती
जो अस्थि अपने जोड से हटगई हो, जो अथवा संधि अपने स्थान से हट जाती है ।
अस्थि संधिस्थान से नीचे को गिरगई हो कांडभंग में सूजनकी अधिकता और सोने ।
और जो जघन स्थान की हड्डी टूटकर चूरा बैठने आदि सब अवस्थाओं में वेदना बहुत |
होगई हो, ये सब वर्जित हैं। होती है । अल्प चेष्टाके काममें भी असामर्थ्य
. अन्य वर्जित अस्थिभंग । और भग्नस्थान में दबाने से शब्द की उत्पत्ति | पालंच ललाट चर्णितं तथा। होती है । ये भंगके सामान्य लक्षण कहे गये । यच्च मनं भवेच्छंखशिरः पृष्ठस्तनांतरे ॥८॥
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