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म. ३४
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत ।
(९९)
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तिदुकत्रिफलारोघर्लेपस्तैलं च रोपणम् ॥ । आनेवाले बला तेल से परिषेक करे, तथा ___ अर्थ--कुंमिका रोगमें रक्तमोक्षण करना मधुर गणोक्त द्रव्यों का ईषदुष्ण कल्क घी हित है । पकजाने पर व्रण को राध से | में सानकर उपनाहन करे । शुद्ध करके दं, त्रिफला, और लोध का अधीला की चिकित्सा। लेप करै, तथा इन्ही से पकाया हुआ तेल | अष्टोलिका हृते रक्ते श्लेष्मग्रंथिवदाचरेत् । घाव के भरने में लगावै ।
अर्थ-अष्ठीलिका रोगमें रक्तमोक्षण करके अळजी की चिकित्सा ॥
| कफज ग्रंथिरोग के समान चिकित्सा करना अलज्यां तरक्तायामयमेव क्रियाक्रमः। चाहिये।
अर्थ-अलजी में भी रक्तमोक्षण करके निवृत्तरोग की चिकित्सा । कुंभिका के समान ही चिकित्सा करनी | निवृत्तं सर्पिषाऽभ्यज्य स्वेदयित्वोपनाहयेत् चाहिये ।
त्रिरात्रं पंचरात्रंवासुस्निग्धः शाल्वढादिभिः उत्तमाकी चिकित्सा ॥
स्वेदयित्वा ततो भूयास्निग्धंचमसमानयेत्॥
मणि प्रपीड्य शनकै प्रविष्टे चोपनाहनम् । उत्तमाख्यांतुपिटिकांसछिद्यवडिशोद्धृताम् ॥
ताम्" मणौ पुनःपुनःस्निग्धं भोजनं चाऽयशस्वते कल्कैश्चूर्णैः कषायाणां क्षौद्रयुक्तैरुपाचरेत्
__अर्थ-निवृत्तनामक लिंगरोग में घी चुप: अर्थ- उत्तमा नामवाली पिटिका को
डकर स्वेदन करै । फिर अवस्थानुसार तीन बाडिश नामक यंत्र से उद्धृत करके छेदन करे, और इसपर कषाय द्रव्यों का चूर्ण
दिन वा पांच दिन तक सुस्निग्ध शाल्वलादि
द्वारा उपनाहन करे । तदनंतर फिर स्वेदन भौर कल्क मधुमिश्रत करके लगावै ।
करे। इस तरह चमडे के कोमल हो जाने __पुष्करव्यूढ की चिकित्सा ॥ क्रमापित्तविसर्पोक्तः पुष्करव्यूढयोर्हितः ॥
पर उसे उपस्थके अग्रभाग अर्थात् माण पर
धीरे धीरे ले आवै । चर्मके भीतर माण के अर्थ --पुष्कर और व्यूढ में पित्तविसर्प के
प्रविष्ट हो जाने पर बार बार उपनाहन करे समान चिकित्सा करना चाहिये । त्वपाक की चिकित्सा ॥
तथा भोजन के लिये स्निग्ध पदार्थों का त्वयाके स्पर्शहान्यां च सेचयेत् | प्रयोग करे ।
अर्थ-लिंग की त्वचा के पकजाने पर | अवपाटिका में कर्तव्य । और स्पर्श का ज्ञान नष्ट होजाने पर परिषेक | अयमेव प्रयोज्यः स्यादवपाट्यामपि क्रमः। करना चाहिये।
अर्थ-अब पाटिका रोग भी इस क्रम मृदित की चिकित्सा । का अवलंबन करना चाहिये ।
. मृदित पुनः। निरुद्धमणि की चिकित्सा । बलातैलेन कोयोन मधुरैश्चोपनाहयेत् ॥ नाडीमुभयतो द्वारा निरुद्ध जतुमा सृताम् ॥ • भर्थ..मृदितनामक किंग रोग पर भागे | हाका स्रोतासन्यस्य सिंघलेहेश्वलाप
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