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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८९३)
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गरम, झागदार, वेदनान्वित, थोडी, रुधिर । जलौकसो हिमं सर्व कफजे घातिकोविधिः मिली हुई राध निकला करती है।
अर्थ-ऊपर कहा हुआ चिकित्साक्रम इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटी- वातज ग्रंथिमें विशेष उपयोगी है । पित्तरक्तज कान्धितायां उत्तरस्थाने ग्रन्थ्यर्बुद .
प्रथिम जोक लगाकर रक्तको निकाल डाले इलीपदापचीनाडी विज्ञानं नाम
| और सदा ठंडे लेपों का प्रयोग करता रहै। एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
| कफज ग्रंथिमें वातज ग्रंथिके सदृश चिकित्सा करना चाहिये।
ग्रंथिमें अग्नि कर्म । त्रिंशोऽध्यायः। तथाप्यपक्कं छित्त्वैनं स्थिते रक्तेऽग्निना महत्
साधशेषं सशेषो हि पुनराप्यायते ध्रुषम् ---:(.):--
___ अर्थ--जो उक्त उपायों से ग्रंथि न पके. अथाऽतो ग्रंथ्यर्बुदलीपदापचीनाडीप्रतिषेध तो इसको जडसे काटकर रुधिर के स्थित
___ व्याख्यास्यामः ॥ रहने पर अग्निसे दग्ध कर देना चाहिये । अर्थ-अब हम यहां से ग्रंथि, अर्बुद,
ग्रंथिको शेष न रखना चाहिये क्योंकि शेष श्लीपद, अपची, और नाडीप्रतिषेध नामक ! 'अध्यायकी व्याख्या करेंगे।
रहने से ग्रंथि निश्चय फिर बढ़ जाती है । .. अपक्व पंथिकी चिकित्सा ।
मांसज ग्रंथि । प्रथिधामेषु कर्तव्यायथास्वंशोफवक्रिया
| मांसत्रणोद्भवी ग्रंथी पाटयेदेवमेव च । .. अर्थ-जो गांठ पकी न हो तो सूजनके
। अर्थ--मांसज और व्रणज ग्रंथियों को भी. समान चिकित्सा करनी चाहिये।
उक्त रीति से काटना चाहिये । ग्रंथिपर स्नेहादि।
मेदोज ग्रंथिका उपाय । वृहतीचित्रकव्यावीकणासिद्धेन सर्पिषा १ कार्य मेदोभवेप्येतत्तप्तः फालादिभिश्च तम् रेइयेच्छुद्धि कामं च तीक्ष्णैःशुद्धस्यलेपनम प्रमृद्यात्तिलदिग्धेन छन्नं द्विगुणवाससा । ___ अर्थ-बडी कटेरी, चीता, छोटी कटेरी | शस्त्रेण पाटयित्वा वा दहेन्मेदसि सूद्धते । और पीपल इनके साथ सिद्ध किया हुआ धी । । अर्थ- मेदसे उत्पन्न हुई ग्रंथि में भी प्रयोग करके रोगी की शुद्धि करे फिर तीक्ष्ण | इसी प्रकार से चिकित्सा करनी चाहिये द्रव्यों का लेप करे ।
। अर्थात् ग्रंथि को काटकर तिलके कल्क का ग्रंथिका स्वेदनादि ।
लेप करदे । फिर इस पर दुहेरा कपडा ढक- . संस्वेद्य बहुशोग्रंथि विमृदूनीयात् पुनः पुनः
| कर लोहे का फलक गरम कर करके उस . अर्थ-ग्रंथिको बहुत बार स्वेदित करके । पर फेरै, अथवा मेदको निःशेष काटकर उसको अंगूठे से मर्दन करें।
अग्नि से दग्ध कर देवै । - अपच ग्रंथिका छेदनादि। सिराग्रंथि की चिकित्सा । एष वाते विशेषेण क्रमः पित्तास्रजे पुनः । सिराग्रंथौ नवे पेयं तैलं साहचर तथा
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