Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Kishanlal Dwarkaprasad

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Page 981
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ( ८८४ ) अर्थ- जो पिटिका ऊंटकी गरदन की तरह ऊपरको उठी हो, जिसमें ललाई, पतलापन गरमाई हो, तथा जिसके होने से र हो और धूंआंसा घुमडता हो उसे पित्तज • पिटिका समझना चाहिये । कफज पिटिका के लक्षण | स्थिरानिग्धामहामूलापांडुकंमती कफात् अर्थ--कफ से उत्पन्न हुई पिटिका स्थिर, स्निग्ध, मोटीजडवाली, पांडवर्ण और खुजयुक्त होती है । वातपित्तज पिटिका । श्यावा ताम्रा सदाहोषाघोररुवातपित्तजा • अर्थ - वातपित्तज पिटका श्याववर्ण, ताम्र वर्ण, दाह और ऊषासे युक्त और भयंकर वेदना वाली होती है। वातकफज पिटका | पांडुरा किंचिदाश्यावा कृच्छ्रपाका अष्टांगहृदय । कफानिलात् । अर्थ- वातकफज पिटका पांडुवर्ण वा कुछ श्याववर्ण और कठिन से पकने वाली होती है। त्रिदोषज पिटका | पादांगुष्ठसमा सवैदोषैर्नानाविधव्यथा ॥ शूलारोचकतुडदाहज्वरछर्दिरुपद्रुता । अर्थ - त्रिदोषज पिटिका पांवके अंगूठे के सहश होती है। इसमें शूल, अरुचि, तृषा, दाह, ज्वर और वमनादि अनेक उपद्रव होते हैं। उक्त पिटिकाओं में प्रमादका फल | प्रणतां यांति ताः पक्काः प्रमादात् अर्थ- ऊपर कही हुई पिटका प्रमाद से अर्थात् चिकित्सा में उपेक्षा करनेसे पक जाती है। शतपोनक भगंदर | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | दीर्यतेणुमुखैरिछदैः शतपोनकवत् क्रमात् । अच्छं स्रवद्भिस्रावमजस्रं फेनसंयुतम् । शतपोनकसंशोऽम् अर्थ -- इनमें से वातज पिटका में छोटे छोटे मुखवाले चालनी की तरह अनेक छिद्र होते हैं, इनमें से झागदार अच्छा स्राव निरंतर होता रहता है | चालनी की तरह असंख्य छिद्र होने से इसे शतपोनक भगंदर कहते हैं । प्र० १८ उष्टमी भगंदर | उग्रवस्तु पिसजः । अर्थ - पित्तज पिटिका ऊंटकी गरदन के सदृश ऊंची होती हैं इसलिये इसे उष्ट्रगी भगंदर कहते हैं। I परिस्रावी भगंदर | बहुपिच्छापरिस्रावी परिस्रावी फोद्भवः अर्थ - - कफ से उत्पन्न हुए भगंदर में पिच्छिल स्राव अधिकता से निकलता है, इसलिये इसे परिस्रावी भगंदर कहते हैं । परिक्षेपी भगंदर | वातपित्तात्परिक्षेपी परिक्षिप्य गुदं गतिः । आयते परितस्तत्र प्राकारपरिखेव च १४ For Private And Personal Use Only अर्थ - - वातपित्तज भगंदरको परिक्षेपी कहते हैं। जैसे नगर के बाहर परकोटा के चारों ओर खाई होती है, इसी तरह इस भगंदर की गति भी चारों ओर से गुह्य नाडियों द्वारा घिरी हुई होती है | ऋजुसंज्ञक भगंदर | ऋजुर्वातकफाडच्या गुदो गत्या तु दीर्यते अर्थ- वात कफके प्रकोप से ऋजुसंज्ञक भगंदर उत्पन्न होता है । यह अपनी सीधी तत्र वाता ॥ ११ ॥ | गति से गुदनाड़ी को विदीर्ण कर देता हैं ।

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