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(८८)
अष्टांगहृदय ।
अ० २७
भात, घी, मांसरस तथा पौष्टिक और अ. अर्थ-काले तिलों की धूल मिट्टी साफ विदाही दुग्धादि और संधि को जोमवार करके एक दृढ वस्त्र में बांधकर सात रात सब प्रकार के खाद्य पदार्थ खाने को दे। तक किसी बहती हुई नदी में डाल दे, भग्न में ग्लानि पैदा न होने है. क्योंकि परंतु प्रतिदिन सवेरे ही पानी में से निकाल ग्लानि से संधि जुडने नहीं पाती है। कर फैलाकर सुखालिया करे । ऐसे सात भग्न में निषिद्ध द्रव्य ।
दिन रात दूधमें भिगोकर सुखा लिया फरे लवणं कटुकं क्षारमम्लं मैथुनमातपम्।
फिर सात दिन रात मुलहटी के काढे में व्यायामं च न सेवेत भन्नो रूक्षं च भोजनम् । भिगोकर सुखालिया फरे । फिर भी एक
अर्थ-भग्नवाला रोगी नमक, कटास वार दूध में भिगोकर सुखाले । फिर इन क्षार, खटाई, मैथुन, धूप, व्यायाम और तिलों के छिलके, मिट्टी आदि दूर करके रूक्ष भोजन इनका परित्याग करदेवै ।
पीसडाले । और खस, नेत्रवाला, मजीठ, वात पित्तज दोषों पर गंधतैल ।
नखी, जटामांसी, गंधतृण, कूठ, बला, कृष्णांस्तिलान् विरजसो दृढवस्त्रवद्धान्
अतिबला, नागवला, अगर, चंदन, कुंकुम, सप्त क्षपा बहति बारीण वासयेत ।
सारिवा, सरलकाष्ठ, राल, देवदारु, और संशोषयेदनुदिनं प्रवसाय चैतान्
पदमाख इन सब का चूर्ण करके मिलादेवे। क्षीरे तथैव मधुकक्कथिते च तोये ॥३६॥
फिर संपूर्ण गंध द्रव्यों के साथ औटाये हुए पुनरपि पीतपयस्कां. स्तान पूर्ववदेव शोषितान् वाढम् ।
दूध में उक्त चूर्ण को मिलाकर तेल निकाले विगततुषानरजस्कान्
फिर शिलारस, रास्ना, शालपर्णी कसेरू, संचूर्णय सुचूर्णितैयुज्यात् ॥ ३७॥ शीशम, तगर, तेजपात, लोध, दूव इनमें मलदवालकलोहितयष्टिकानखमिशिल्लबकुष्टबलात्रयैः।
पूर्वोक्त नलदादि चूर्ण डालकर उक्त तेल अगरुचंदनकुंकुमसारिवा.
को पकावै । यह गंधतल अस्थियों के जोडने सरलसर्जरसासरदारुभिः ॥ ३० ॥ में बहुत गुणकारी है। इसका पान नस्यादि पद्मकादिगणोपेतैस्तिलपिष्टं ततश्च तत् ।
विविध प्रकार के प्रयोगों द्वारा सेवन करने समस्तगंधभैषज्यसिद्धदुग्धेन पीडयेत् ॥
| से वात पित्त से उत्पन्न हुई संपूर्ण देह में शैलेयरामांशुमतीकसेरुकाळानुसारीनतपत्ररोधैः।
व्याप्त होनेवाली बडी बडी बलवान् व्याधियां सक्षारयुक्तैः सपयस्क
जाती रहती हैं। स्तैलं पचेत्तन्नलदादिभिश्च ॥४०॥ इलिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषागंधतलमिदमुत्तममस्थि
टीकान्वितायां उत्तरस्थाने भग्नस्थैर्यजयति चाशु विकारान् ।। पातपित्तजनितानतिवीर्यान्
प्रतिषेधो नाम सप्तविंशो व्यापिनोऽपि विविधरुपयोगैः॥४१॥ ऽध्यायः ॥ २७॥
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