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म. २४
उत्तरस्थान भाषाठीकासमेत । (८५९) रक्तमोक्षण का निषेध । । अथवा पर्वल, नीमके पत्ते और हलदी कामिभिः पीतरक्तत्वाद्रक्तमत्र न निर्हरेत् । इनको पीसकर लेप करदे, अथवा पुरानी
अर्थ-कृमिमानित शिरोरोग कीडे ही | खल और मुर्गेका विष्टा गोमूत्र में पीसकर शरीर के रक्तको पान करते रहते हैं इस उसका लेप करे । लिये इसमें और रक्तमोक्षण की आवश्यकता अन्य प्रयोग । नहीं है।
| कपालभृष्टं कुष्टं वा चूर्णितं तैलसंयुतम् । कंपकी चिकित्सा । रूषिकालेपनं कंक्लेदवाहार्तिनाशनम् ॥ . घाताभितापविहितः कंपे दाहाद्विना क्रमः। अर्थ कूठको ठीकरे में भूनकर पीसले
अर्थ-शिरःकंपरोग में दाह के सिवाय और इसमें तेल मिलाकर अरूंषिका पर लेप अन्य सब वातज शिरोरोगोक्त चिकित्सा करने से खजली, क्लेद और दाह नष्ट हो करनी चाहिये।
जाता है। पित्तजशिरोभिताप का उपाय । उक्तरोग में तैलमर्दन । नवे जन्मोत्तरं जाते योजयेदुपशीर्षके १९ मालतीचित्रकावननक्तमालप्रसाधितम् । घातव्याधिक्रियां पक्के कर्मविद्रधिचोदितम् वचारूंषिकयोस्तैलमभ्यंगः क्षुरपृष्टयोः।
अर्थ-जन्मसे पीछे होनेवाले नवीन उप- अर्थ-मालती, चीता, और कनेर कंजा शीर्षकरोग में वातव्याधिमें कही हुई चिकि- इनके साथ वच और भिलावे का तेल पका. सा करनी चाहिये । पकने पर विद्रधिके
कर इस तेलका मर्दन करे । समान चिकित्सा करना उचित है।
उक्तरोग में वमनादि । .. आमादि का उपाय । अशांतौ शिरसः शुद्धयै यतेत वमनादिभिः। मामपक्के यथायोग्यं विद्रधीपिटिकावुदे ।। अर्थ-इन सब उपायों के करने पर भी
अर्थ-विद्रधि,पिटिका और अर्बुद रोगों | यदि रोगी की शांति न हो तो मस्तक के की चिकित्सा उनकी पक्क और अपक्व दशा शोधन के निमित्त वमनादि का प्रयोग करना के अनुसार करनी चाहिये ।
चाहिये। अषिका का उपाय।
दारुणक का उपाय । अरूंषिकाजलोकोभिर्हताना निववारिणा। विध्येच्छिरां दारुणके लालायां शीलये. सिक्ता प्रभूतलवणैर्लिंपेदश्वशकद्रसैः ॥
नावनं मूर्ध्नि वस्ति च लेपयेच समाक्षिक । पटोलनिवपत्रैर्धा सहरिद्रैः सुकल्कितैः। गोमूत्रजीर्णपिण्याककृकवाकुमलैरपि ॥
प्रियालवीजमधुककुष्टमारःससर्षपैः ।
लाक्षाशम्याकपत्रैडगजधात्रीफलैस्तथा। । अर्थ--अरूंषका रोगमें जोक लगाकर
कोरदूषतृणक्षारवारिप्रक्षालनं हितम् ॥ रुधिर को निकाल डाले और उस पर नीम | अर्थ-दारुणकरोग में लालादि शिरावेध, के काढे का परिषेक करे । घोडे की लीद शुद्धि, नस्य शिरोवस्ति का सेवन करना के रसमें बहुत सा नमक मिलाकर लैंप करे | चाहिये । तथा चिरोंजी, मुलहटी, कूठ, उर्द
स्मृजाम् ॥
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