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अष्टांयहृदये ।
अ० १९
कराये जाते हैं उनको वमनादि कर्म के बीच ) होजातीहै, और बहुत दिन पछि बुढापा बीच में स्नेहन और स्वेदन कराता रहै, | आताहै । अर्थात् स्नेहस्वेद देकर पीछे वमन कर, इतिश्रीअष्टांगहृदये भाषाटीकायां फिर स्नेहस्वेद, पीछे विरेचन, फिर स्नेहस्वेद अष्टादशोऽध्यायः। देकर पीछे अनुवासन, फिर स्नेहस्वेद तदनन्तर निरूह पस्ति देवै । इसका कारण यह है कि वमभ के अन्त में दिया हुआ स्नेह एकोनविंशोऽध्यायः बलवान् करदेता है। शोधन औषध द्वारा मलका निकालना मलोहि देहादुत्क्लेश्य द्वियते यासही यथा
अथाऽतोयस्तिविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः। स्नेहस्वेदैस्तथोक्लेश्य लियते शोधनमलः।। अर्थ- अब हम यहांसे वस्ति विधि ना. अर्थ- जैसे वस्त्रका मैल प्रथम सावन मक अध्याय की व्याख्या करेंगे । आदि लगाकर स्निग्ध करने और गरम करने
वस्ति के भेद । से दूर होजाताहै वैसेही मल स्नेह स्वेद द्वारा "शताल्बणेषु दोषेषु वाते वा वस्तिरिष्यते । वहिर्गमनोन्मुख होकर शोधन औषधियोंके उपक्रमाणां सर्वेषांसोऽग्रास्त्रिाविधश्च सः प्रयोगसे शरीर में से निकल जाते हैं। निरूहोऽन्वासनोवस्तिरुत्तर:
स्नेहस्वेद बिना शोधनसे हानि । अर्थ-वासाधिक्य दोषों में अर्थात् वातस्नेहस्वेदावनभ्यस्य कुर्यात्संशोधनंत या पित्त, वात कफ अथवा केवल वातमें वस्ति दारुशुष्कामवाऽऽनामे शरीरं तस्य दीर्थते। क्रिया की जाती है । जितने प्रकार की
अर्थ- स्नेहन वंदन कर्मके विना शो- क्रिया हैं उन सबमें वस्ति प्रधानतम है । धन द्रव्योंका सेवन शरीर को ऐसे विदीर्ण | वस्ति तीन प्रकार की होती है (१) निरूह करदेताहै जैसे सूखा काठ नबानसे चिर (२) अन्वासन [ अनुवासम ] और (३) नाताहै वा टूटजाताहै ।
उत्तरवस्ति । वस्ति जब उत्तरमार्ग अर्थात् संशोधन का फल । लिङ्गादि में दीजाती है उसको उत्तर वस्ति वृद्धिप्रसादं बलमिद्रियाणां -
| कहते हैं । पिचकारी का नाम बस्ति है। धातुस्थिरत्वं ज्वलनल्य दीप्तिम् । चिराच्च पाकं वयसः करोति
बस्तिके योग्य रोगी। संशोधनं सम्यगुपास्यमानम् ६०॥
तेन साधयेत् । अर्थ- संशोधन क्रिया का सम्यक् रीति
गुल्माऽऽनाहखुडप्लीहशुक्राऽतीसारशूलिनः से प्रयोग किये जानेपर बुद्धि निर्मल होजाती
जीर्णज्वरप्रतिश्यायशुक्राऽनिलमलग्रहान् ।
बर्माऽश्मरीरजानाशान्दारुणांश्चाऽनिला, हैं, इन्द्रियगण बलवान् होजाते है, शरीरस्थ
मयान् ॥ ३॥ धातु दृढ़ होजातेहैं, जठराग्नि प्रज्वलित अर्थ-गुल्म, आनाह, खुडवात, प्लीहा,
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