________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अं० १५
चिकित्सितस्थान भापाटीकासमेत ।
पित करके टांके लगादे फिर कालीमिट्टी और पट्टी बांध देवै और रोगीको अन्नका भोगन मुलहटीका पेटपर लेप करके वांधदे । फिर | न देकर अल्पस्नेह और लबणान्वित पेयारोगीको वातरहितं स्थानमें घी वा तेल की | पान करने को दे । द्रोणीमें बैठाये रक्खै और केवल दूध पीनेको दे | जलोदरकी अन्य चिकित्सा । ___ अभ्य जलोदरोंका उपाय । स्यात्क्षीरवृत्तिषण्मासांस्त्रीपेयोपयसापिवेत सजले जठरे तैलैरभ्यक्तस्याऽनिलापहैः। श्रीश्चाऽन्यान्पयसैवाद्यात् फलाम्लेन स्विनस्योष्णांवुनाऽऽकक्षामुदरे परिवेष्टिते॥
रसेन वा। यद्धच्छिद्रोदितस्थाने बिध्येदंगुलमात्रकम्।। अल्पशःनेहलवणं जीर्ण श्यामाककोद्रवम्। निधाय तस्मिन्नाडी च स्रावयेदर्धमभसः॥ प्रयतो वत्सरेणैवं विजयेत्तज्जलोदरम् अथाऽस्य नाडीमाकृष्य तैलेन लवणेन च। अर्थ-जल निकलने के पीछे रोगीको घ्रणमभ्यज्य बध्वा च वेष्टयेद्वाससोदरम् ॥ | छः महिने तक केवल दूध, पीछे तीन मतृतीयेऽन्हि चतुर्थ वा यावदाषोडशं दिनम् | हिने तक दूध के साथ, पेया, फिर तीन मतस्य विश्रम्य विश्रम्य स्रावयेदल्पशाजलं
| हिने तक दूध, फलाम्छ वा मांसरसके साप विवेष्टयगाढतरंजठर च श्लथाश्लथम् ।। निःसुते लंधितःपेयाममेहलवणां पिबेत् ।
स्नेह और नमक से युक्त पुराने सोंखिया अर्थ-जलोदरमें तिलका तेल, सरसोंका | और कोदों खानेको देवै । इसतरह यत्नपूर्वक तेल तथा अरंडादि का वातनाशक तेल, । एक वर्षतक रहनेसे जलोदर जाता रहता है। इनसे उदरको चुपड कर और गरमजल से
| आहार में नयावर्ण्य ॥ . स्वेदित करके कुक्षितक उदरको कपडेसे ल- वज्र्येषु यत्रितो दिष्टे नात्यादिष्टे जितेंद्रियः । पेट देवै फिर पद्धोदर वा छिद्रोदर में कही अर्थ-अम्ल और लवणांदि वर्जित आहुई रीतिसे नाभिके नीचे बाई ओर रोमराजी । हार विहार में उदररोगी को यत्नसे रहना से चार अंगुल जगह छोडकर एक अंगुल | चाहिये । अर्थात् इनको सर्वथा त्याग देवे। चीरा लगाकर एक नल उस छिद्रमें प्रवेश | कथित अन्नपानादि में बहुत यत्नसे रहने करदे और उस नलके द्वारा पेटमें से आधा की आवश्यकता नहीं, परन्तु परिमाण से जल निकालले । फिर नलको निकालकर | | भीतर रहना चाहिये । अकथित अन्नपा. नमक और तेल से व्रणको चुपडकर और | नादि में जितेन्द्रियतासे रहे अर्थात् निहायांधकर पेटपर कपडा लपेट देवै, फिर तीन | लोलुप न होना चाहिये । तीन वा चार चार दिनके अंतर से सोलह |
सर्वोदरचिकित्सा ॥ दिनतक थोडा थोडा जल निकालता रहे ।
सर्वमेवोदरं प्रायो दोषसंघातजं यतः एक ही वारमें संपूर्ण जल निकाल लेनेसे । अतो वातादिशमनी क्रिया सर्वा प्रशस्यते। विशेष उपद्रवकी आशंका रहती है, जल अर्थ-क्योंकि सब प्रकारके उदररोग निकलने के पीछे शिथिलपेट पर कसकर । प्रायः तीनों दोषोंके संघात से होते हैं, इस
For Private And Personal Use Only