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(६८०)
अष्टांगहृदय ।
म. २१
वातरक्त में तैल। - सहस्र बार पकावै । इस तेल से वातरक्त मधुयष्टयाः पलशतं कषाये पादशेषिते। और वातरोग नष्ट होजाते हैं । यह उत्तम तैलाढकं समक्षीरं पचेत्कल्कै पलोन्मितः ।
रसायन इन्द्रियों को प्रफुल्लित करनेवाला, स्थिरातामलकीर्वापयस्याभीरुचंदनैः। लोह हंसपदीमांसीद्विमेदाम धुपणिभिः ।
जीवन, वृहण, स्वरकारक, तथा वीर्य और काकोलीशीरकाकोलीशतपूष्पार्द्धिपद्मकैः।। रक्त दोष को नाश करनेवाला है। जीवंतीजीवकर्षभकत्वकूपत्रनखवालकैः ।। वातरक्त में स्नेहनादि । प्रपौडरीकमंजिष्ठासारिवंद्रीवितुम्नकैः। कुपिते मार्गसरोधान्मेदसो वा कफस्य था। चतुःप्रयोगं वातासृपित्तदाहज्यरातिनुत् | अतिवृद्ध्यानिले शस्तमादौ नेहनबृंहणम् ॥
अर्थ-मुलहटी सौपल लेकर कही हुई कृत्वा तत्राढ्यवातोक्त वातशोणितिकं ततः । विधि के अनुसार काढा कर, चौथाई शेष | भेषजं स्नेहनं कुर्याद्यञ्च रक्तप्रसादनम् ॥ रहने पर उतार कर छान ले, इस फाढे में
अर्थ-मेद वा कफकी अतिवृद्धि से मार्ग एक आढक तेल और इतनाही दूध मिला
के रुकजाने के कारण जो वायु कुपित हो कर शालपर्णी, भूम्यामलकी, दूब, दुग्धका,
जाय तो प्रथम स्नेहन और वृंहण क्रिया सिताबर, चंदन, अगर, हंसपदी, जटामांसी
करना चाहिये । तत्पश्चात् आढ्यबात में मेदा, महामेदा, मधुपर्णी, काकोली, सोंफ,
कही हुई चिकित्सा करके वातरक्त में कही ऋद्धि, पदमाख, जीवक, ऋषभक दालची.
| हुई स्नेहन और रक्तको शुद्ध करनेवाली नी, तेजपात, नखी, नेत्रत्राला, पुंडरीक,
क्रिया करनी चाहिये । मजीठ, सारिवा, इन्द्रायण, और धनियां प्र.
प्राणादि चिकित्सा येक एक प । इन सब द्रव्यों को कूट | प्राणादिकोपे युगपद्यथोद्दिष्टं यथामयम् । पीसकर ऊपर लिखे काढे में डालकर पाक
यथासन्नं च भैषज्यं विकल्प्यं स्याधथाबलम् विधि के अनुसार पाक करै । इस तेलका
अर्थ-प्राणादि पांच वायुके एक साथ पान, नस्य, अनुवासन और वस्ति इन चार । कुपित होनेपर यथोक्त अर्थात् वातव्याधिचिरीतियों से प्रयोग करने पर वातरक्त, पित्त कित्सा के अनुसार, यथामय अर्थात् प्राणादाह, ज्वर, और वेदना शांत होजाते हैं । पानादि वायु के प्रकोप से उत्पन्न रोगानुसार, अन्य तैल।
यथासन्न अर्थात् प्राणादि पंचवायु के नि.
कटवर्ती स्थान के अनुसार और यथावल बलाकलककषायाभ्यां तैलं क्षीरसमं पचेत् सहस्त्रशतपाकं तद्वातासृग्वातरोगनुत् ॥
अर्थात् प्राणादि पंचवायु के बलके अनुसार रसायनं मुख्यतममिद्रियाणां प्रसादनम्।। औषधकी कल्पना करनी चाहिये । जीवन बृंहणं स्वयं शुक्रासग्दोषनाशनम् ॥ , शुद्धवात की चिकित्सा ।
अर्थ-खरैटी के कल्क और काढे के नीतें निरामतां सामे स्वेदलंघनपाचनैः । साथ समान भाग दूध और तेल को सौ वा । रुचालेपसेकाद्यैः कुर्यातकवलबाननुत् ॥
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