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म. १५
उसरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(८०३)
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पंचदशोऽध्यायः।
हताधिमंथ । हताधिमंथःसोऽपिस्यात्प्रमादात्तेनवेदनाः
अनेकरूपाजयंते व्रणोदृष्टौ च दृष्टिहा॥५॥" अथाऽतः सर्वाक्षिरोगविज्ञानं व्याख्यास्यामः अर्थ-अधिमंथ की उपेक्षा करने से
अर्थ- अब हम यहां से सर्वाक्षिरोगवि- हताधिमंथ की उत्पत्ति होती है, इसमें अनेक ज्ञाननामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। प्रकार की वेदना होती है तथा दृष्टि मण्डल
वातन नेत्राभिष्यंद के लक्षण । नाशक व्रण उत्पन्न हो जाता है। "वातेननेत्रेऽभिष्यंदेनासानाहोऽल्पशोफता अन्यतोवात के लक्षण ॥ शंखाक्षिम्रललाटस्य तोदस्फुरणभेदनम् १ मन्याक्षिशंखतो वायुरन्यतो वा प्रवर्तयेत् । शुरुकाल्पादूषिकाशीतमच्छमश्रु चला रुजः व्यथांतीवामपैच्छिल्यरागशोफ विलोचनम् निमेषोन्मेषणं कृच्छ्राजंतूनामिव सर्पणम् । संकोचयति पर्यश्र सोऽन्यतो वातसंशितः। अश्याध्मातमिवाभातिसूक्ष्मैःशल्यैरिवाचितम् स्निग्धोषणैश्योपशमनं
। अर्थ-जिस रोग में वायु मन्या और अथ-बात करके अभिष्यन्दित हुए नेत्र । कनपटा स अथवा अन्य स्थान से तीव्र वेदना में नासानाह, अल्पसूजन, कनपटी, आंख, |
उत्पन्न करती है इसके द्वारा नेत्र संकुचित भृकुटी, ललाट, तोद, स्फुरण, भेदन, नेत्रके |
हो जाते हैं, इसमें नेत्रों में पिच्छिलता, ललाई मल में सूखापन और अल्पता, निर्मल और और सूजन कुछ नहीं होता हैं, किंतु आंसू शीतल अश्रुपात, वेदना में अस्थिरता, बड़े बहा करते हैं। कष्टसे नेत्रका खुलना मुंदना, आंखों में चींटी वातविपर्यय के लक्षण। सी चलना, नेत्र फूला हुआ और छोटे छोटे तद्वन्नेत्रभवेज्जिह्ममून वातविपर्यये ॥७॥ कांटों से व्याप्त तथा स्निग्ध और उष्ण अर्थ-अन्यतोबात की तरह वातविउपचार से शांति ये लक्षण होते हैं। पय्ये में नेत्र टेढे और छोटे हो जाते । अधिमंथ में कर्णनादादि ॥
पित्ताभिष्यन्द के लक्षण । सोऽभिव्यंद उपेक्षितः॥ दाहो धूमायनं शोफ श्यावता वर्त्मनो बहिः अधिमयो भवेत्ता कर्णयोर्नदन भ्रमः। अंतःक्लेदोश्रुपीतोष्णं रागः पीताभदर्शनम् अरण्येव च मथ्यंते ललाटाक्षिभ्रवादयः । क्षारोक्षितक्षताक्षित्वं पित्ताभिष्यंदलक्षणम्
अर्थ-वाताभिष्यन्द रोग की चिकित्सा । अर्थ-पित्ताभिष्यन्द नेत्ररोग में नेत्रों में करने में उपेक्षा करने से अधिमथकी उत्पत्ति दाह, नेत्रों से धूआं निकालने की वेदना, होती है । इपमें कर्णनाद और भ्रम की | सूजन, पलकों के बाहर श्याववर्णता, भीतर उत्पत्ति होजाती है, तथा ललाट, नेत्र और क्लेद, आंसू पीले और गरम, नेत्र में ललाई भृकुटी आदि में अरणी के. मथने की सी और पीला दिखाई देना, क्षार द्वारा ब्याप्तता पीड़ा होती है।
| और घाव ये सब लक्षण उपस्थित होतेहैं।
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