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अ० १७
उत्तरस्थान भाषांटीकासमेत ।
कानमें कठिनता से पुकारकर बोलने का | विद्रधिः पूर्ववच्चान्यः शब्द पहुंचता है । इसीसे धीरे धीरे वहिरापन हो जाता है ।
प्रतीनाह का लक्षण ॥ बातेन शोषितः श्लेष्मास्त्रोतोलिंपेत्ततोभवेत् रुग्गैौरवं पिधानं च स प्रतीनाहसंशितः ॥ अर्थ- वायुके द्वारा कफ सूखकर कर्ण - स्रोत को रोक देता है, इससे कानमें बेदना भारापन और ढकाव सा होता है । इसीको प्रतीनाह कहते हैं ।
कंशोफ रोगोंके लक्षण ॥ कंडूशोफौ कफाच्छ्रोत्रेस्थिरौतत्संज्ञयारमृतौ अर्थ - कफ के कारण कानमें स्थिर खुजली और स्थिर सूजन हो जाती है, इसीसे इन रोगोंको स्थिर कंडू और स्थिर शोफ कहते हैं ।
पूतिकर्ण के लक्षण || फो विदग्धः पित्तेन सरुज नीरुजं त्वपि ॥ धनपूर्तिबहुलदं कुरुते पूतिकर्णकम् !
अर्थ-पित्तके द्वारा कफ जलकर कान को वेदनायुक्त वा वेदनारहित कर देता है तथा गाढा और दुर्गन्धित क्लेद उत्पन्न करदेता है | इसको पूर्तिकर्णक रोग कहते हैं । कृमिकर्णक के लक्षण ||
वातादिदूषितं श्रोत्रं मांसासृक्क्लेदर्जा जम् खादंतो जतयः कुर्युस्तीब्रां स कृमिकर्णकः अर्थ- वातादि दोष द्वारा कानके दूषित होनेपर उसमें कीडे पडजाते हैं । ये सब कीडे कानोंको खाने लगते हैं । तथा मांस रक्त और तोद से तीव्र वेदना होने लगती है, इसे कृमिकर्णक कहते हैं ।
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कर्णविद्रधि ।
श्रोत्रकंइयनाज्जाते. क्षते स्यात्पूर्वलक्षणः ।
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( ८ १५ )
अर्थ - खुजाने से कान में घाव होकर पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त एक कर्णविद्रधि होती है। निदान में कह चुके हैं यः शोफो वहिरन्तर्वा महामूलो महारुजः । वृतः स्यादायतो यो वा स्मृतः षोढास विद्रधिः । कर्णा और कर्णार्बुद ॥ शोफोऽशऽर्बुदीरितम् । तेषु रुक्पूतिकर्णत्वं बधिरत्वं च बाधते । अर्थ- कान के रोगों में कर्णार्श और कर्णार्बुद भी होते हैं इनमें वेदना, पूतिकर्णव और वहरापन ये उत्पन्न होते हैं । कूचिकर्ण रोग ॥ गर्भेऽनिलात्संकुचिता शष्कुली कूचि कर्णकः अर्थ- वायुके कारण कान के भीतर का छिद्र सुकड जाता है, इसको कूचिकर्णक कहते हैं ।
कर्णपिप्पली ॥
एको नीरुगनेको वा गर्भे मांसांकुरः स्थिरः पिप्पलीपिप्पलीमानः
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अर्थ- कानके छिद्र के भीतर एक वा एक से अधिक पीपल के समान कठोर और वेदनारहित मांस के अंकुर पैदा हो जाते हैं, इन को कर्णपिप्पली कहते हैं ।
विदारिका के लक्षण ॥ सन्निपाताद्विदारिका सवर्णः सरुजः स्तब्धः श्वयथुः स उपेक्षितः कटुतैलनिभं पक्कः स्त्रवेत् कृच्छ्रेण रोहति । संकोचयति रूढा च सा ध्रुवं कर्णशष्कुलीम्
अर्थ- सन्निपात के कारण कानके भीतर स्तब्ध, वेदनायुक्त और त्वचा के समान वर्ण वाली एक सूजन होती है, उसे विदारिका