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(८३६)
मष्टांगहृदयः । .
म. २१
तप्तांगारनिभा कर्णकरी पित्तजाकृतिः। | कंठमार्ग की अर्गला के सदृश जो अत्यन्त
अर्थ-रक्तजरोहिणी में फोडोंकी व्याप्ति, भयानक सूजन होती है, उसको गलौघ तप्त अंगार की सदृशता, कानमें दर्द तथा कहते हैं, इस रोग में माथे में भारापन, पित्तजरोहिणी के लक्षण उपस्थित होते हैं। तन्द्रा लार गिरना और ज्वर उपस्थित ___ सान्निपातिकरोहिणी का कर्म । होते हैं । गंभीरपाका निचयात्सर्वलिंगसमन्विता ॥
बलय रोग। ___ अर्थ- त्रिदोषजरोहिणी में गूढपाक तथा पलयं नातिरुक् शोफस्तद्वदेवायतोन्नतः । संपूर्ण दोषों के लक्षण पाये जाते हैं। __ अर्थ-कंठप्रदेश में थोडे दर्द वाली,
कंठशालूकरोग । लंबी, ऊंची, कंकण के आकार की जो दोषैः कफोल्वणः शोफः कोलवत् ग्रथितोन्नत: सूजन होती है, उसे बलय कहते हैं । शूककंटकवत्कंठे शालूको मार्गराधनः।
गलायका रोग। . अर्थ-कफप्रधानवातादि दोष द्वारा कंठमें मांसकीलोगलेदोषेरेकोऽनेकोऽथवाल्परुक् बेरके समान ऊंची गांठ होजाती है और वह कृच्छ्रोच्छ्वासाभ्यवहृतिःपृथुमूलोगलायुका शूक के कांटों की तरह कंठके मार्ग को रोक अर्थ-दुष्ट वातादि दोष द्वारा गले के देती है । उसको कंठशालूक कहते हैं। भीतर काल के समान मोटी जडवाली, वृन्दा रोग ।
अल्प वेदना से युक्त एक वा एक से अधिक वृदो वृत्तोन्नतो दाहज्वरकृद् गलपार्श्वगः ॥ मांसकी कील सी पैदा होजाती हैं, इनको
अर्थ-गले के पास गोल, ऊंची, दाहो- | गलायुक रोग कहते हैं । इस रोग में श्वास त्पादक और ज्वरकारक जो गांठ होती है | के लेने निकालने में और आहार में बड़ी उसे वृन्द कहते हैं।
कठिनता होती है। तुंडिकेरिका रोग ।
शतघ्न रोग। हनुसंध्याश्रितः कंठे कार्यासीफलसन्निभः। भूरिमांसांकुरवृता तीव्रतूट्ज्वरमूर्धरुक ५० पिच्छिलोमंदरुशोफा कठिनस्तुंडिकेरिका
शतघ्नी निचिता पर्तिः शतघ्नीवातिरुक्करी ___ अर्थ-कंठभागमें हनुका आश्रय लेकर |
___ अर्थ-बहुत से मांसके अंकुरो से आवृत
| तीव्र तृषा ज्वर और माथे के दर्दसे युक्त. कपास के फलके समान आकृति से युक्त, गिलगिली, थोडे दर्दवाली और कठोर सूजन
शतघ्नी के समान कांटों से व्याप्त जो वर्ती पैदा होजाती है । उसको तुंडफेरिका रोग
पैदा होती है, उसे शतघ्नी कहते हैं । कहते हैं ।
लोहे के कांटों से आवृत एक प्रकार के गलौघ रोग।
शस्त्र को शतघ्नी कहते हैं, इसके तुल्य पायांतः श्वयथु?रो गलमार्गार्गलोपमः । होने से इस रोग को भी शतघ्नी कहते हैं । गलौघो मूर्धगुरुतातंद्रालालाज्वरप्रदः ४८ गलविद्रधि रोग।
अर्थ-कंठप्रदेश के भीतर और बाहर व्याप्तसर्पगलः शीघ्रजन्मपाको महारुजः ।
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