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अ० २२ .
उतरस्थान भाषाटीकासमेत ।
.(८५३)
कालीमिरच, मुलहटी और रसौत इनके | सगैरिकसितापुंड्रैः सिद्धं तैलं च नावनम् । चूर्ण को घृतमंड और शहत में सानकर अर्थ--सौषिर रोगको शस्त्रसे छिन करके इससे प्रतिसारण करे । तदनंतर सुखोष्ण
और खुरच कर लोध, मोथा, जटामांसी, धृतमंड वा तेलका कवल धारण,तथा मधुर- | त्रिफला, रसौत, पतंग, केस, कायफल और गणोक्त द्रव्यों के साथ धृत पकाकर इस शहत इनके द्वारा प्रतिपारण करे, तथा घृतका कवल वा नस्य की व्यवस्था करना इन्ही के काढे का गंडूष धारण करै । मुल. चाहिये।
हटी, लोध, नीले त्पल, श्यामालता, अनंतदंतपुप्पुट का उपाय । मूल, अगर, चंदन, गेरू, सफेदकटेरी दंतपुट के स्पिन्नछिन्नभिन्नविलेखिते ॥ और पोंडा इनसे सिद्ध किये हुए तेल का यथ्यावस्या काशुःसिंधवैः प्रतिसारणम। नस्य द्वारा प्रयोग करना चाहिये । ___ अर्थ-दंतपुप्पुटरोग को स्वेदद्वाग स्विन्न
अधिमांस का उपाय । तथा शस्त्रद्वारा छिन्न भिन्न और विलखित छित्त्वाधिमांसकंचूर्णैः सक्षौद्रि प्रतिसारयेत करके मुलहटी, सज्जीखार, सोंठ और सेंधे- वचातेजोवतीपाठास्वर्जिकायवशूकजैः । नमक के चूर्ण द्वारा प्रतिसारण करे । पटोलनियत्रिफलाकषायः कवलो हितः ॥ दंतविद्रधि का उपाय ।
अर्थ अधिमांस का छेदन करके बच, विद्रधी कटुतीष्णोष्णरूः कवललेपनम् ॥ मालकांगनी, पाठा, सज्जी, जवाखार और घर्षगं कटुकाष्टवृश्चिकालीयवोद्भवैः । | शहत इनके द्वारा प्रतिसारण करे । इसमें रक्षेत्पाकं हिमैः पक्का पाटयो दाह्योऽव- पर्वल, नीमकी छाल, और त्रिफला के काढे
गाढकः॥
| का कवल हितकारी है। अर्थ-दंतविद्रधिरोग में कटु, तीक्ष्ण,
विदर्भ का उपाय । उष्णवीर्य और रूक्ष द्रव्यों से कवल और
विदर्भ दंतमूलानि मंडलायेण शोधयेत् । मलेपन की व्यवस्था करनी चाहिये । इसमें क्षारं युज्यात्ततो नस्यं गंडूषादिच शीतलम् कुटकी, कूठ, वृश्चिकाली और जौका चूर्ण अर्थ-विदर्भरोग में मंडलाम शस्त्र से रिगड दे । शीतवीर्य औष! के द्वारा पाक | दांतों की जड का शोधन करके क्षार लगाना निवारण करे । पकने पर उखाडनी चाहिये। चाहिये । तत्पश्चात् शीतवीर्य वाले व्यों अत्रगाढ दंतविद्रधि को अग्निद्वारा दहन | से सिद्ध किया हुआ नस्य और गंडूषादि करना चाहिये।
धारण की व्यवस्था करना उचित है । ___ सौषिरका उपाय।
दंतनाली का उपाय। सविरे छिन्नलिखिते सक्षौदैः प्रतिसारणम् संशोध्योभयतः कायं शिरश्चोपचरेत्ततः । रोधमुस्तमिशिश्रेष्ठातायपत्तंगकिंशुकैः ॥ | नाडी देतानुगां दंतं समुद्धृत्यामिना दहेत्॥ सकट कलैः कषायैश्च तेषां गंडूष इष्यते। कुज्जां नैकगति पूर्णा मदनेन गुडेन था। यष्टीरोधोत्पलानंतासारिवागरुचंदनः ॥ । धावनं जातिमदनखादिरस्वादुकंटकैः ॥
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