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अष्टांगहृदय |
( ७५६ )
शालपर्णी, पृश्नपर्णी, प्रियंगु, तगर, कटेरी, कूठ, मजीठ, नागकेसर, अनार, वायविडंग, तालीसपत्र, छोटी इलायची, मालती के मुकुल, नीलोत्पल दंती, पदमाख, और चंदन, प्रत्येक एक कर्ष तथा एक प्रस्थ घी, इनको पाक की रीति से पाक करे। यह घी भूतग्रह, उन्माद, खांसी, अपस्मार पाप, पांडुरोग, खुजली, विषरोग, सूजन, मूर्छा, प्रमेह, गरविष, ज्वर, शुक्रक्षीणता, वन्ध्यत्व दैषोपहितचित्तता अर्थात् दैवैकृत मनकी विभ्रांति, मेधाहीनता, अटकती हुई वाणी, स्मृति कामना, और अग्निमांद्य इन सब उपद्रवों में यह कल्याणक घृत उपयोग में लाना चाहिये यह घृत बल वर्द्धक, मंगलीक आयुवर्द्धक, कांतिदायक, सौभाग्यकारक, और पौष्टिक होता है । यह घृत पुंसवन में श्रेष्ठ है ।
महा कल्याणक घृत । एभ्यो द्विसारिवादीति जले पक्त्वैकवैिशतिः रसे तस्मिन्पचेत्यपि गृष्टिक्षीरचतुर्गुणम् ॥ रामेाच्छ्रविपाणिभिः । शूर्पपर्णीयुतैरेतन्महाकल्याणकं परम् ॥ वृंहणं सन्निपात पूर्वस्मादधिकं गुणैः ।
अर्थ- ऊपर कहे हुए कल्याणक घृतमें से पहिले सात द्रव्य त्रिफलासे लेकर एलुआ तक छोड़कर बाकी सारिबादिसे लेकर चंदन तक इक्कीस द्रव्यों को लेकर घी से सोलह गुने जल में अग्नि पर चढादे चौथाई शेष रहनेपर उतार कर छानले फिर इस क्वाथ में प्रथम वार व्याही हुई गौका चौगुना दूध डाले और क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, का कोली, कमांच, काकडासगी और सूर्पपर्णी इनका कल्क मिलाकर पाक विधिसे पार्क करें
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अ० ६
यह महाकल्याणक घृत वृंहणकर्ता और सन्निपातनाशक होता है और कल्याण घृत की अपेक्षागुणों में अधिक होता है । महापैशाचक घृत ।
जटिला पूतना केशी चारटी मर्कटी वचा । त्रायमाणा जया वीरा चोरकः कटुरोहिणी । कायस्था शूकरी छषा अतिच्छत्रा पलंकषा महापुरुषदेता च वयस्थानाफुलीद्वयम् । कटंभरा वृश्चिकाली शालिपर्णी च तैर्वृतम् सिद्धं चातुर्थिकोन्मादग्रहापस्मारनाशनम् । महापैशाचकं नाम घृतमेतद्यथामृतम् बुद्धिमेधास्मृतिकरं बालानां चांगवर्धनम् ।
अर्थ - जटामांसी, हरड, गंधमांसी, पद्म चारिणी, केंच, नच, त्रायमाण, अरणी, काकोली, चंडा, कुटकी, आमला, वृद्धदारक धनियां, सोंफ, लाख, सितावरी, क्षीर का - कोली, सर्पाक्षी, सर्पगंधा, कटंभरा, वृश्चिकाली और शालपर्णी इन सब द्रव्यों के साथ घी पका । इस घी का नाम महा पैशाचक है, यह चातुर्थकज्वर, उन्माद, ग्रह, अपस्मार को नष्ट कर देता है | बुद्धि, मेधा और स्मृतिको बढाने वाला है, बालकों को अंगको बढाने वाला अमृत के समान गुणकारी है।
अन्य प्रयोग । ब्राह्मीर्मेंद्रीविडंगानिव्योषं हिंगु जहां मुराम् रास्त्रां विशल्यां लशुनं विषघ्नां सुरसां वचाम् ज्योतिष्मती नागविन्नामनंतां सहरीतकीम् काच्छीं च हस्तिमूत्रेण पिष्ट्वा छायाविशोषिता । वर्तिर्नस्यांजनाले पधूपैरुन्माद सूदनी ॥ ४० ॥ अर्थ - ब्राह्मी, इन्द्रायण, बायबिडंग, त्रिकुटा, हींग, जटामांसी, मुरा, रास्त
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