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अ०११
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७७७ )
वृद्धिपत्र से उसके अर्द्धभाग में छेदन कर | कफाभिष्यंदवन्मुक्त्वा सिराव्यथमुपाचरेत् देना चाहिये, इससे अधिक छेदन में आंसू | वीजपूररसातं च व्योषकटूफलमंजनम् अधिकता से बहने लगते हैं । इसकी चि.
अर्थ-कफग्रथित और पिष्टक रोगमें सिकित्सा अर्म के सदृश होती है । इसमें शहत
राब्यध को छोड़कर अन्य सब उपाय कफाऔर सेंधानमक मिलाकर प्रतिसारण करना
| भिष्यन्द की तरह करने चाहिये । त्रिकुटा बाहिये।
और कायफल के चूर्णको बिजौरे के रसमें पूयालस की चिकित्सा । घोटकर अंजन लगाना हितहै। पूयालसे सिरां विध्येत्ततस्तमुपनाहयेत् ।
अन्य प्रयोग । कुर्वोत चाक्षिपाकोक्तं सर्व कर्म यथाविधि जातीमुकुलसिंधूत्थदेवदारुमहौषधै। .
अर्थ-पूयालस में सिरा को वेधकर उस पिष्टैः प्रसन्नया वर्तिः शोफकंडूनमंजनम् पर लेप करे । इसमें अक्षिपाक के सब अर्थ-चमेली की कली, सेंधानमक, देव, उपाय करने उचित है।
दारु और सौंठ इन सबको प्रसन्ना नामक __ अन्य प्रयोग।
सुराके साथ पीसकर वत्ती बनालेवे, इस संघबाईककासीसलोहतानः सचूर्णितैः ५ बत्ती को आंजनेसे सजन और खुजली जाती चूजनं प्रयुंजीत सक्षौद्रा रसक्रियाम् । . अर्थ-सेंधानमक, अदरख, हीराकसीस,
रहती है। लोह और ताम्र इन के चूर्णका अंजन लगावै
शिरोत्पात का उपाय।
रक्तस्यंदवदुत्पातहर्षजालार्जुनक्रिया। और इसी चूर्णमें शहत मिलाकर रसक्रिया
___अर्थ-शिरोत्पात, शिराहर्ष, सिराजाल करनी चाहिये ।
और अर्जुन इन रोगों में रक्ताभिष्यन्द के । कृमिग्रंथि का उपाय।
तुल्य चिकित्सा करनी चाहिये । कृमिग्रंथिंकरीषेणस्विन्नं भित्वाविलिख्य च
उक्तरोगों में विशेषता । त्रिफलाक्षौद्रकासीससैंधवैः प्रतिसारयेत् ।।
सिरोत्पाते विशेषेण घृतमाक्षिकमंजनम् ॥ अर्थ-कृमिग्रार्थ का उपला स स्वादत सिराहर्षे तु मधुना श्लक्ष्णघृष्टं रसांजनम् । करके व्रीहिमुखादि शस्त्रों से स्वेदित और | अर्जुने शर्करामस्तुक्षौद्रैराश्चोतनं हितम विलखित करके उसमें त्रिफला, शहत, हीरा स्फटिक कुंकुम शंखो मधुको मधुनांजम् । कसीस और सेंधेनमक द्वारा प्रतिसारण करे। मधुना वांजन शंखः फेनो वा सितया सह
। अर्थ-सिरोत्पात में विशष करके घी और शुक्लाख्यरोग का उपाय । पित्ताभिष्यंदवच्छुक्लिं
शहत आंजना चाहिये । सिराहर्ष में शहत - अर्थ-शुक्लिरोगमें पित्ताभिष्यंद के सदृश के साथ महीन पिसी हुई रसौत लगावै । चिकित्सा करना चाहिये ।
अर्जुनरोग में शर्करा, दही का तोड और कथित और पिष्टक । शहत इनको मिलाकर आंख में टपकावै । .......... बलासाह्वयपिष्टको ॥ ७॥ अथवा स्फटिक, केसर, शंख, मुलहदी और
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