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(७६०)
- अष्टांगहृदय ।
भविपाकोऽरुचिर्मूर्छा कुक्ष्याटोपो वलक्षयः | रूक्ष, श्याव, अरुण वा काले पड़ जाते हैं । निद्रानाशोऽगमर्दस्तृट् स्वप्ने गानं सनर्तनम् रोगी को चंचल, कर्कश विरूप और बिकृ. पाने मद्यस्य तैलस्य तयोरेव च मेहनम् ८
| तानन संपूर्ण वस्तु दिखाई देने लगती हैं। ___ अर्थ-अपस्मार के पूर्वरूप ये हैं । हृदय में कंपन, सन्नाटा, चक्कर आना, आंखों
पित्तज अपस्मार। के आगे अंधेरा दिखाई देना, ध्यान बंध जा
अपस्मरति पित्तेन मुहुः संशां च विदति ।
पीतफेनाक्षिवक्त्रत्वगास्फलयति मेदिनीम् ना, भ्रकुटियों में कुटिलता, आंखोंमें विकृति |
भैरवादीप्तरुषितरूपदर्शी तृषान्वितः ॥१३॥ शब्द न होने पर भी सुनना, पसीना, लाला | अर्थ-पित्तज अपस्मार में रोगी बार बार स्त्राव, नासामलस्राव, अविपाक, अरुचि, मू. चेत करलेता है, उसके झाग, आँख, मुख छो, पेटमें गुडगडाहट, बलकानाश, निद्राना- | और त्वचा पीले पडजाते हैं, भूमि को खोदने श, अंगमर्द, तृषा, स्वप्नावथा में गाना,ना- लगता है उसे प्यास लगती है, इसको भयाचना, मद्यपान, तैलपान, तथा मद्य वा तेल नक, प्रदीप्त, और क्रोधित रूप दिखाई देने के समान ही मूत्र होना । ये सब लक्षण
लगते हैं। अपस्मार रोग होने के पहिले उत्पन्न होते है।
कफज अपस्मार। वातज अपस्मार के लक्षण ।
कफाचिरेण ग्रहणं चिरेणैव विबोधनम् । तत्र वातात्स्फुरत्सक्थि प्रपतंश्च मुहुर्मुहुः । चेष्टाऽल्पा भूयसी लाला शुक्लनेत्रनखास्यता अपस्मारेति संज्ञा च लभते विस्वरं रुदन् | शुक्लाभरूपदर्शित्वं उत्पिडिताक्षः श्वसिति फेनं वमति कंपते ।
सर्वलिंगं तु वर्जयेत् आविध्यति शिरोदंतान् दशत्याध्मातकंधरः
___ अर्थ- कफज अपस्मार में रोगी देरमें बे. परितो विक्षिपत्यंगं विषमं विनतांगुलिः। शश्यावारुणाक्षित्वनखास्यः कृष्णमीक्षते हो
| होश होता है और देर में ही रोगसे मुक्त हो चपलं परुषं रूपं विरूपं विकृताननम् । कर होश में आता है, इसमें रोगी चेष्टा क
अर्थ-इनमेंसे वातज अपस्मार में रोगी का | म करता है, मुखसे लार अधिक गिरती है, पांव कांप ने लगता है और बार बार गिरता | नेत्र नख और मुख सफेद होजाते हैं,गेगीको पडता है, उसका ज्ञान नष्ट होकर स्वर वि- | शुक्लवर्ण की वस्तु दिखाई देने लगती हैं। कृत रुदन करनेलगता है आंखे गोलसी हो । त्रिदोषज अपस्मार जिसमें तीनों दोषों के ल. जाती हैं श्वास लेता है मुखसे झाग डलताहै। क्षण पाये जाते हैं असाध्य होता है। कांपने लगता है, सिरको घुमाता है, दांतों वमनादि प्रयोग । को चबाता है, कंधों को ऊंचे करता है, अथाऽवृतानांधीचित्तहत्खानांप्रारूप्रबोधनम् अंगको चारों ओर फेंकता है. देहमें बिष. तीक्ष्णैः कुर्यादपस्मारे कर्मभिर्बममादिभिः । मता होजाती है, संपूर्ण उंगलियां टेडी अर्थ-जब अपस्मार के स्वरूप का ज्ञान पड़जाती हैं । आंग्वें, त्वचा, नख और मुख , हो जाय तब दोषोंसे आवृत वुद्धि, चित्त,
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