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अष्टांगहृदय |
कर्दमरोग | कृष्णं तु कर्दमं कर्दमोपमम् १८ अर्थ - कीचके सदृश वा काले रंगकी फुंसियों को कर्दम कहते हैं । बहलरोग का वर्णन | बहलं बहलैर्मासैः सवर्णैश्चीयते समैः । अर्थ - नेत्रोंके पलकों को त्वचा के रंग के समान जो सघन मांस के अंकुरवर्त्म में पैदा होजाते हैं, उसे वह वर्त्मरोग कहते हैं । कुकूणक का लक्षण | कुकूणकः शिशोरेव दंतोत्पत्तिनिमित्तजः : स्यात्तेन शिशुरुच्छ्रन ताम्राक्षो वीक्षणाक्षमः स पशूलपच्छिल्य कर्णनासाक्षिमर्दनः ।
अर्थ- दांत निकलने के समय बालक के कुकूणक नामक रोग होता है, यह रोग बालक को ही होता है, क्योंकि दांतों की : उत्पत्ति का हेतु है । इसमें बालक की आंख फूल जाती हैं और तांबे के से रंगकी होजातीहै, बालक देखने में असमर्थ होजाता है, कान, नाक और आंखों को मीडने लगता है। उसके पलकों में पिच्छिलता और शूलवत् वेदना होने लगती है ।
वर्त्मसंकोचादि ।
पक्ष्मोपरोधे संकोचो वर्त्मनां जायते तथा । खरतांतर्मुखत्वं च लोम्नामन्यानि वा पुनः कंटकैरिव तीक्ष्णाग्रैर्धृष्टं तैरक्षिसूयते । उष्यते चानिलादिद्विडल्पाहः शांतिरुद्धः अर्थ - पक्ष्मोपरोध रोगमें कर्म में सुकडापन, तथा पलक खरदरे और भीतर को मुख बाले होजाते हैं, अथवा पुनवीर लोम उत्पन्न हो जाते हैं । पैनी नोक वाले रोमों से नेत्र कांटों से बधे से हो जाते हैं । इस रोग में नेत्रों
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में दाह होने लगता है, हवा और धूपको सह नहीं सकता है । रोमों को उखाड छैनेसे वेदना शीघ्र शांत होजाती है । इस रोगको परवाल कहते हैं ।
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अलजीनामक ग्रंथि |
hotos बहिर्व कठिनो ग्रंथिरुन्नतः । ताम्रः पक्कोऽनपूयास्त्रदलज्याध्मायते मुहुः अर्थ-ब के बाहर की ओर कनीनका में एक कठोर और ऊंची गांठ होती है, उसका रंग तांबे के सदृश, पकने पर राध और रुधिर बहानेवाली होती है, इसे अलजी कहते हैं, यह बार बार फूल जाती है ।
अर्बुद का लक्षण । वर्त्मतर्मासपिंडाभः श्वयथुर्ग्रथितो रुजः । सानैः स्यादर्बुदो दोषैर्बिषम्रो बाह्यतश्चलः
अर्थ-वर्त्मके भीतर मांसके पिंड के सदृश एक गांठदार सूजन होती है यह रक्त तथा वातादि तीनों दोषों के कारण पैदा होती है, इसमें दर्द नहीं होता है, इसे अर्बुद कहते हैं । जब यह वर्त्मके बाहर होती है, तब यह चलायमान और विषम आकृतिवाली होती है । चतुर्विंशतिरित्येते व्याधयो वर्त्म संश्रयाः । अर्थ- - ऊपर कही हुई चौबीस व्याधियां वर्मके आश्रयवाली हैं ।
श्रीरोगों की संख्या ।
उक्तव्याधियों का साध्यासाध्यत्व । आद्योse भेषजैः साध्यो द्वौ ततोऽर्शश्व येत् ॥ २५ ॥ पक्ष्मोपरोधो याप्यः स्याच्छेषाञ्छत्रेण साधयेत् । अर्थ- इनमें से पहिला रोग आर्थत्