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अ. ६
उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत ।
(७५३)
उन्मादके छः भेद।
और स्मृतिका विभ्रम होकर देह सुख और " उन्मादाः षट्
दुखके ज्ञान से रहित होजाता है और रोगी पृथग्दोषनिचयाधिविषोद्भषा-। अचिंतितारंभ (कर्तव्याकर्तव्यविचारसे रहित) अर्थ-उन्माद रोग छः प्रकार के होते हैं होकर सारथीहीन रथकी तरह भ्रमण करने यथा--वातज, पित्तज, कफज, त्रिदोषज, | लगता है । भाधिन और विषन ।
पातजउन्माद के लक्षण । उन्माद का स्वरूप।
तत्र पातात्कृशांगता ॥६॥ उन्मादो नाम मनसोदोषैरुन्मार्गगैर्मदः १॥ अस्थाने रोदनाक्रोशहसितस्मितमर्तमम। शारीरमानसै? रहितादन पानतः ।
गीतबादित्रवागंगविक्षेपास्फोटमानि च ७ विषमस्याल्पसत्त्वस्यव्याधिवेगसमुद्रमात् ।
असान्ना वेणुवीणादिशब्दानुकरणं मुहुः । क्षीणस्य
आस्यात्फेनागमोऽजसमटनं बहुभाषिता ८ चेष्टावैषम्यात्पूज्यपूनाव्यतिक्रमात् ॥ अलंकारोनलंकाररयानर्गमनोधमः। आधिभिश्चित्तविभ्रंशा विषेणोपविषेण च गृद्धिरभ्यवहार्येषु तल्लाभे वायमानता ९॥ एभिर्विहीनसत्वस्य हृदि दोषाः प्रदूषिताः॥ उत्पिडितारुणाक्षित्वं जीणे घाझे गदोपः। धियो विधाय कालुण्यं हत्वा मार्गान्- अर्थ-वातज उन्माद में देहमें कृशता,
___ मनोबहान् ।। अस्थान में अर्थात् बिना कारण ही रोना, उन्मादं कुर्वते तेन धीयिज्ञानस्मृतिभ्रमात् देहो दुःखसुखभ्रष्टो भ्रष्टसारथिवद्रथः।
चिल्लाना, हंसना,मुस्कुराना, नाचना,गाना, भ्रमयचिंतितारंभः
बजाना, बकना, हाथ पांव फेंकना, किसी ___ अर्थ-शारीरक और मानसिक दूषित
वस्तुका तोडना फोडना, उद्धतपन से वेणु, विकारों से,अहित अन्न पान के सेवन से,
वीणादि के सदृश शब्द करना, मुखसे तथा विकृत, असात्म्य और दोपयुक्त भोजन झाग गिरना, निरंतर घूमते रहना, बहुत से, विमष उपयोग से, विषम और अल्प
बोलना, अलंकारके अयोग्य वस्तुओं से वलवाले मनुष्य के व्याधि के वेगकी अधि
अलंकार बनाना, यानगम्य स्थानों में बिना कता से, दुर्वल मनुष्य की मल्लयुद्धादि
यानके ही जाने की कोशिश करना, सब विषमचेष्टा से, गुरुवृद्धयादि पूज्य व्यक्तियों
प्रकार की खाने की वस्तुओं में लोलुपता, की अवज्ञासे, मानसिक पीडाओं द्वारा चित्त
खाने की वस्तु मिलने पर अपमान करदेना, के विभ्रंश होने से, विष और उपविष के | नेत्रों में गोलाई और ललाई तथा भोजन के सेवनसे,इन सब कारणोंसे सत्वगणहीन मनष्य | पचनकाल में व्याधिकी अधिकता ये सब में बातादि तीनोंदोष हृदय में प्रदूषित होकर |
उपस्थित होते हैं।
. पित्तजउन्माद के लक्षण । वुद्धिको कलुषित करके, तथा मनोवाही
पित्तात्सतर्जनं क्रोधो मुष्टिलोष्टाधभिद्रवः । स्रोतों को दूषित करके उन्माद रोगको शीतच्छायोदकाकांक्षा नग्नत्वं पीतवर्णता। पैदाकर देते हैं । इस रोग से बुद्धि, विज्ञान असत्यज्वलनज्वालातारकादीपदर्शनम् ११
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