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(७४२)
अष्टांगहृदयं ।
स्नानार्थ जल।
__ अर्थ-जिस व्यक्ति में अमानुषी ज्ञान, पूतीकरजस्वपत्रं क्षौरिभ्यो बर्बरादपि। विज्ञान, चाणी, चेष्टा, बल और पौरुष दि. तुबीविशालारलु काशमीधेिल्वकपित्थकाः॥
खाई दें, उसीको भूतग्रह कहते हैं, ये भूत उत्क्वाथ्य तोयं तद्रात्री बालानां मपनम्
शिवम् ।
| विज्ञान के सामान्य लक्षण हैं। ___ अर्थ-पूतिकरंज की छाल और पत्ते,
भूतों के भेद। दूधवाले वटादि वृक्षों के छाल और पत्ते, भूतस्य रूपप्रकृतिभाषागत्यादिचेष्टितैः ।
यस्यानुकारं कुरुते तेनाविष्टं तमादिशेत् तिलवण के छाल और पत्ते, तूंवी, इन्द्रायण
सोऽष्टादशविथो देवदानवादिविभेदतः । पाठा, शमी, वेल और कैथ इनको डाल कर
अर्थ-जो व्यक्ति जिस भूत के रूप, जल औटावै और इस जलसे बालक को
प्रकृति, भाषा, और गति आदि चेष्टाओं रात्रि के समय स्नान करावै ।
का अनुकरण करता है, उसको उसी भूत बालरोग में उपचार विधि। से आविष्ट जानना चाहिये । ये भूत देव अनुवन्धान्यथा कच्छंग्रहापायेप्युपद्रवान् ।
| दानवादि भेद से अठारह प्रकार के होते हैं। वालामयनिषेधोक्तभेषजैः समुपाचरेत् ,, ॥ अर्थ-ग्रहों के अनुबंध के अनुसार जै
भूतोनुषंग में हेतु। सा कष्टहो तथा ग्रहों के मोक्षणमें जो जो
हेतुस्तदनुषक्तौ तु सद्यः पूर्वकृतोऽथवा
। प्रज्ञापराधः सुतरां तेन कामादिजन्मना। उपद्रव हों उनको वालामय प्रतिषेधोक्त
लुतधर्मव्रताचारः पूज्यानप्यतिवर्तते औषधियों द्वारा दूर करनेका यत्नकरे ।। तं तथा भिन्नमर्याद पापमात्मोपघातिनम् । इति श्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा
देवादयोप्यनुघ्नंति महाश्छिद्रप्रहारिणः टीकान्वितायां उत्तरस्थाने बालग्रह
____ अर्थ-भूताभिपंग में इस जन्म के हाल प्रतिषेधोनाम तृतीयोऽध्याय.३
| के किये हुए वा पूर्व जन्म के किये हुए
प्रज्ञापराध ही हेतु होते हैं । कामक्रोनादि इति कुमारतंत्रम् ।
जन्य प्रज्ञापराध से मनुष्य धर्म, व्रत और
| श्राचार से भ्रष्ट होकर पूज्य व्यक्तियों का चतुर्थोऽध्यायः । भी उलंघन कर देता है । अतएव उस
मर्यादा से भ्रष्ट, पापाचारी, तथा आत्मोप. अथाऽतो भूतविशानं व्याख्यास्यामः ॥
घाती को छिद्रप्रहारी देवादिक मारडालते . अर्थ-अब हम यहां से भूतविज्ञानीय | हैं । छिद्रप्रहारी उसे कहते हैं जो किसी नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
पागादि कर्म के मौके को देखकर प्रहार भूतग्रह के लक्षण ।
करते हैं। लक्षयेशानविज्ञानवाक्चेष्टायलपौरुषम् । ग्रह के ग्रहण में हेतु । पुरुषेऽपौरुषं यत्र तत्र भूतग्रहं वदेत् छिद्रं पापक्रियारंभापाकोऽनिष्टस्य कर्मणा ।
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