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farhanस्थान भाषाटीका समेत ।
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पित्तावृत में चिकित्सा । पित्तावृते पित्तहरं मरुतश्चानुलोमनम् ॥ अर्थ - पित्तावृत में उदानादि वायुके पित से आवृत होने पर पित्तनाशक और वातानुलोमक क्रिया करनी चाहिये । रक्ताव्रतमें चिकित्सा । रक्तावृतेऽपि तद्वच्च खुडोक्तं यच्च भेषजम् । रक्तपित्तानिलहरं विविधं च रसायनम् ॥
अर्थ - उदानादि वायुके रक्तसे आवृत हो ने पर पित्तनाशक और वातानुलोमक क्रिया हित हैं तथा वातरक्त में कही हुई चिकित्सा, तथा रक्त, पित्त और बातनाशक क्रिया, तथा अनेक प्रकार की रसायन औषध दोष दृष्यादि के अनुसार देनी चाहिये ।
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आयुर्वेदकी फलभूत चिकित्सा यथा निदाननिर्दिष्टमिति सम्यकुचिकित्सितम् आयुर्वेदफल स्थानमेतत्सद्योर्तिनाशनम् ॥
अर्थ- उदानवायु का स्वभाव ऊर्ध्वगामी हैं, अपानवायु का स्वभाव अधोगामी है, समानवायु, स्त्रस्थानस्थ, व्यानवायु सर्वगामी है, इसलिये वही चिकित्सा करना चाहिये जिससे उदानवायु का ऊर्ध्वगमन, अपानवायुका अनुलोमन, समानवायुका स्वस्थान में रहना, और व्यानवायु का सर्वत्रगमन स्थिर रहै | इन चारों से प्राण वायुकी सदा रक्षा करना चाहिये, जिससे उनके द्वारा प्राणवायु को किसी प्रकार की बाधा नप हुँचे । इसका कारण यही है कि प्राणवायु की स्थितिसे ही शरीर की स्थिति है, प्राण - वायुके अतिरिक्त किसी प्रकार से जीवन संभव नहीं है । इसलिये इसकी विशेष रूप से रक्षा' करनी चाहिये | इन उपायों से विमार्गगामी वायुओं को अपने अपने स्थान में लाना चाहिये ।
अर्थ - इस रीति से निदान के अनुसार चिकित्सित स्थान का सम्यक् रूपसे वर्णन किया गया है । यह आयुर्वेद का फलस्वरूप है क्योंकि इसके द्वारा सब प्रकार के रोग शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ।
औषध के पर्याय | चिकित्सितं हितं पथ्यं प्रायश्चित्तं भिषग्जितम् । भेषजं शमनं शस्तं पर्यायैः स्मृतमौषधम् ॥ अर्थ - औषध के पर्यायवाची शब्द ये हैं यथा - चिकित्सित, हित, पथ्य, प्रायश्चित, मित्राजित, भेषज, शमन और शस्त । इतिश्री मथुरानिवासिश्रीकृष्ण लाल कृता यो भाषाकान्वितायां अष्टांगहृदय संहितायां चिकित्सितस्थाने वा तशोणितचिकित्सितं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ।
. पित्तरक्त वर्जित सर्वावरण | सर्व चावरणं पित्तरक्तसंसर्गवर्जितम् ॥ रसायनविधानेन लशुनो हंति शीलितः ।
अर्थ - पितरक्त का छोडकर वायु के स ब आवरण रसायन विधि में कही हुई रीति सेल्हसन का सेवन करने से जाते रहते हैं ।
माणादीनां भिषक्कुर्याद्वितय स्वयमेव तत् । अर्थ - ऊपर कही हुई रीति के अनुसार आवृन प्राणादि की चिकित्सा संक्षेप से कही गई है । वैद्यको इन सबका बिचार करके उपयोग में लाना चाहिये ।
विमार्गवायुका स्वमार्गानयन | सदान योजयेदूर्ध्वमपानं चानुलोमयेत् ॥ समानं शमयेद्विद्वांस्त्रिधा व्यानं च योजयेत् । प्रागोरक्ष्यश्वतुर्योsपितत्स्थितो देह संस्थितिः स्वं स्वं स्थानं नये देवं वृत्तान्वातान्विमार्गगान्
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