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कल्पस्थान भाषांटीकासमेत ।
जवाखार
गोमूत्र, पील, चीता, सेधा नमक, और सरसों के योग से वस्ति में तीक्ष्णता तथा घी और दूधके संयोग से मृदुता करे । सिद्धवस्ति का फल | थलकालरोगदोषप्रकृतीः प्रविभज्य योजितो बस्तिः । स्वैः स्वैरौषधवर्णैःस्वान् रोगान्निवर्तयति । अर्थ - बल, काल, रोग, वातादि दोष और रोगी की प्रकृति का विचार करके बातादि नाशक औषधों के संयोग से सिद्ध की हुई वस्तयां उन उन रोगोंको नष्ट करदेती हैं
वस्तियोजना का प्रकार । उष्णातनांशी तांश्छी तार्तानांतथा सुखाष्णांच तद्योग्यौषधयुक्तान्बस्तीन्संत चुंजीत ।
अर्थ - यथायोग्य औषधों से युक्त वस्ति उष्णता से पीडित व्यक्तियों को शीतल और शीत से पीडित व्यक्तियों को सुखोष्ण वस्ति देनी चाहिये ।
विशोधन के योग्य |
बस्तीन बृंहणीयान् दद्याद्वयाधिषु विशोध
मेदस्वनो विशोध्या ये च नराः कुष्ठमेहार्ताः न क्षीणक्षत दुर्बलमूर्छित कृशशुष्कशुद्धदेहानाम् | दद्याद्विशोधनीयान् दोषनिबद्धायुषो ये च,,
अर्थ - मनविरेचन द्वारा शोधन के यो ग्य व्याधियों में वृंहण वस्तियों का प्रयोग न करना चाहिये क्योंकि मेदस्वी तथा कुष्ठ और प्रमेह से पीडित रोगी विशेष करके शोधन के योग्य होते हैं । क्षीण, क्षत, दुर्बल, मूर्छित कृश, शुष्क और शुद्ध देवाले रोगीको वस्ति
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न देना चाहिये क्योंकि वस्ति के देने से दोर्षो के अति क्षीण होनेपर आयु नष्ट हो जाती है इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां कल्पस्थाने वस्तिकल्पचतुर्थोऽध्यायः ।
पंचमोऽध्यायः ।
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अधाडतो बस्तिव्यापत्सिद्धिं व्याख्यास्यामः अर्थ - अब हम यहांसे वस्तिव्यापत्सिद्धि नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
अस्निग्ध देहमें वस्तिका प्रयोग | "अस्निग्धस्विन्नदेहस्य गुरुकोष्ठस्य योजितः शीतोऽल्पस्नेहलचणद्रव्यमात्रो घनोऽपि या बस्तिः संक्षोभ्य तं दोषं दुर्बलत्वादनिर्हरन् करोत्ययोगं तेन स्याद्वातमूत्रशकृद्ग्रहः । नाभिबस्तिरुजादाहो हल्लेपः श्वयथुर्गुदे ॥ कंडूगडानि वैवर्ण्यमरतिर्वन्हि मार्दवम् ६
अर्थ - जिस रोगीको पहिले स्नेह और स्वेदन न दिया गया हो और उसका कोष्ट भारी हो उसको शीतल, अल्पस्नेह और नमक सेयुक्त अथवा गाढी वस्ति दीजाय तो वस्ति दुर्बल होने के कारण दोषोंको बाहर नहीं निंकाल सकती है, किन्तु उन्हों को संक्षोभितं कर देती है और इससे अयोग हो जाता है। ऐसा होनेसे अधोवायु, मूत्र और विष्ठा का विबंध हो जाता है | नाभि और वस्ति में दाई और वेदना होती है, हृदयमें उपलेप, गुदामें सूजन, खुजली, गंड, विवर्णता, अरति और अग्निमांद्य हो जाता है ।
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