________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अष्टांगहृदय ।
अ०४.
वातनाशक वस्ति ।
नेसे विष्टाका विवंध और आनाह जाता रह. क्षीराद् द्वौप्रसृतौ कार्यों मधुतेलघृतात्रयः। ता है ।। खजेन मथितो वस्तिर्वातघ्मो वलवर्णकृत् ॥ शुक्रकारक वस्ति ।
अर्थ-दूध चार पल,तथा मधु तेल और पयस्येचस्थिरारानाविदारीक्षौद्रसर्पिषाम् । घी चार प्रस्त, इन सब द्रब्यों को रई से | एकैकप्रसृतो बस्तिः कृष्णाकल्को वृषत्वकृत् मथकर वस्ति द्वारा प्रयोग करना चाहिये । अर्थ-दुग्धिका, ईखकी जड, शालपर्णी यह वस्ति वातनाशक तथा वल और वर्ण | रास्ना, विदारीकंद, शहत और घी प्रत्येक को करनेवाली है।
एक प्रसृत और इनके साथ में पीपलका
कल्क मिलाकर वस्ति देने से शुक्रकी वृद्धि __ वातनाशक वस्ति ।
होती है। एकैकः प्रसृतस्तैलप्रसन्नाक्षौद्रसर्पिषाम् ।
सिवास्तयों का वर्णन । बिल्बादिमूलकाथादु द्वौ कौलत्थादू द्वौ स
बातजित् ॥ २२॥
सिद्धवस्तीनतो वक्ष्ये सर्वदा यान्प्रयोजयेत्
निप्पदो बहुफलान्बलपुष्टिकरान् सुखान अर्थ-तेल, प्रसन्ना, मधु और घृत
अर्थ-अब हम यहां से सिद्ध वस्तियों का प्रत्येक एक प्रसृत, विल्वादि पञ्चमूल का
वर्णन करते हैं, इनका प्रयोग सदा किया काथ दो प्रसृत, इनकी वस्ति वातनाशक
जाता है । ये वस्तियां निप्पद बहुत गुण___ अभिष्यन्दादिनाशक वस्ति ।
कारक, बल और पुष्टि करनेवाली हैं, तथा
सुखकारक भी हैं। पटोलनिंबभूतीकरानासप्तच्छदाभसः।
प्रमेहनाशक वस्ति । प्रसृत पृथगाज्याञ्चवस्तिः सर्षपकल्कवान् संपचतिक्तोभिप्यदकृमिकुष्ठप्रमेहहा।।
मधुतैले समे कर्षः सैंधवाद् द्विपिर्मितिः
एरंडमूलक्वाथेन निरूहो मधुतैलिकः। पर्वल, नीमकी छाल, चिरायता, रास्ना
रसायनं प्रमेहार्शः कृमिगुल्मांत्रवृद्धिनुत् ॥ और सातला इनमें से प्रत्येक का काढा एक
__अर्थ-मधु और तैल समान भाग, सेंधाप्रसृत, घी एक प्रसृत, इनके साथ सरसों
नमक एक कर्ष, सोंफ दो पिचु, इन सब द्रका कल्क और पञ्चतिक्त घृत मिलाकर व्यों को अरंड के काढेमें मिलाकर देने से उसकी वस्ति देनाचाहिये, इससे अभिष्यन्द | यह रसायन है प्रमेह, अर्श, कृमि, गुल्म और कृमि, कुष्ठ और प्रमेह नष्ट हो जाते हैं। अंत्रवृद्धि को दूर करतीहै । इस निरूहण व.
विट्संगादि नाशकवस्ति । | स्ति में मधु और तैलका अधिक संयोग होता चत्वारस्तैलगोमूत्रदधिमंडाम्ल कांजिकात् ॥ है. इससे इसे मधुलिक कहते हैं।
हमदनः नेत्रोंको हितकारक वस्ति । अर्थ-तेल, गोमूत्र, दहीका मंड और | सयष्टिमधुकश्चैष चक्षुष्यो रक्तपित्तजित् । अम्लकांनी प्रत्येक चार प्रसत, इनमें सरसों अर्थ-मुलहटी से संयुक्त की हुई वस्ति पीसकर मिलादेवै । इससे वस्ति प्रयोग कर | नेत्रोंको हितकारक तथा रक्तपित्तनाशक होती है
For Private And Personal Use Only