________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अ० २२
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
www. kobatirth.org
बस्तिप्रयोग |
स्वतः श्लेष्मा यदी पक्काशये स्थितः । पित्तं वा दर्शयेद्रूपं वस्तिभिस्तं विनिर्जयेत् ॥
अर्थ-स्नेह और स्वेद द्वारा जब कफ पतला होकर पकाशय में स्थित होजाता है। और वहां अपने रूपको दिखाता है अथवा पित्त अपने रूपको दिखाता है तो उस कफ वा पित्तको वस्तिद्वारा दूर करने का उपाय करे ।
इति श्री अष्टांगहृदय संहितार्या भाषाटीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने वातव्याधिचिकित्सितनाम एकविंशोऽध्यायः ॥२१॥
द्वाविंशोऽध्यायः ।
NON
अथातो वातशोणितचिकित्सितं
व्याख्यास्यामः ।
अर्थ - अब हम यहां से वातरक्त चिकिसितनामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे ।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(६७५.)
अर्थ यदि वातरक्तमें वेदना, लढाई, तोद और दाह होतो जोक लगाकर रुधिर निकाले । जो चिमचिमाहट, खुजली, वेदना और जलन होती हो तो सींगी वा तूंवी लगाकर रुधिर निकाले । जो रक्त एक स्थानसे दूसरे में जाता हो तो पछने लगाकर वा सिराव्यध द्वारा रक्तको निकाल दे ।
रुधिर निकालने का निषेध ॥ अम्लानौ तु न स्त्राव्यं रूक्ष वातोत्तरं चयत् ॥ ३ ॥ गंभीरं श्वयथुं स्तंभ कंपस्नायुसिरामयान् । म्लानिमन्यांश्च वातोत्थान् कुर्याद्वायुरसृ क्षयात् ॥ ४ ॥ अर्थ- जो अंग म्लान होतो रक्तनिकालना उचित नहीं है । तथा जो वातरक्त रूक्षता और वातकी अधिकता से युक्त हो तो भी रक्त नहीं निकालना चाहिये । क्योंकि रक्त के क्षीण होजाने से गंभीर सूजन, स्तब्धता कंपन, स्नायुरोग, सिरारोग, ग्लानि तथा और भी अनेक प्रकार के वातजनित रोग पैदा होजाते हैं ।
वातरक्त में विरेचन । विरेच्यः स्नेहयित्वा तु स्नेहयुक्तैर्विरेचनैः । अर्थ- जो रोगी विरेचन के योग्य हो उसे स्निग्ध करके स्नेहयुक्त विरेचन देवे ।
वातरक्तमें रक्तहरण | वातशोणितिनो रक्तं स्निग्धस्य बहुशो हरेत् अल्पाल्पं पालयन् वायुं यथादोषं यथाबलम्
अर्थ - वातरक्तवाले रोगी को स्निग्धकर के उसके दोषदुष्यादि और बलका विचार करते हुए वार वार थोडा थोडा रक्त निकालता रहे, जिससे वायु कुपित न होने पावै ।
air निकालने की विधि | रूग्रागतोददाहेषु जलौकाभिर्विनिर्हरेत् । शृंगतुंबश्वमिचिमाकंडूरुग्डूयनाम्वितम् ॥
अन्य प्रयोग |
श्रावणक्षीरकाकोलीक्षीरिणीजीवकैः समैः ।
प्रच्छानेन सिराभिर्वा देशादेशांतरं ब्रजत् । | सिद्धं सर्षपः सर्पिः सक्षीरं वातरतनुत् ६
५
वातप्रधान वातरक्त में घृत । वातोत्तरे वातरक्ते पुराणं पाययेद्धृतम् अर्थ - वातप्रधान वातरक्त में पुराने घी का पान कराना चाहिये |
For Private And Personal Use Only