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में०१४
चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत ।
(६४७)
करें।
अर्थ-ग्रंथिविसर्प में प्रथमही रक्तपित्त को | सक्षावारुणामर्मातुलुंगरंसान्वितैः। नाश करनेवाली क्रिया करके पीछे वात
त्रिफलायाः प्रयोगैश्च पिपल्यरेझौद्रसंयुते
देवदारुगुडूच्योश्च प्रयोगैर्गिरिजस्य च । कफनाशक कर्म, पिंडस्वेद और उपनाह
मुस्तभल्लातसक्तूनां प्रयोगैर्माक्षिकस्य च ॥
धूमैर्विरेकैः शिरसः पूर्वोक्तैर्गुल्मभेदनैः। अंथि विसर्प में परिषेक। तत्तायोहेमलवणपाषाणादिप्रपीडनैः॥३१॥ ग्रंथिवीसर्पशूले तु तैलेनोष्णोन सेचयेत्।। अर्थ-मूली का यूष, कुलथी का यूप, दशमूलविपक्केन तद्वन्मूत्रैर्जलेनवा ॥ २४ ॥
जवाखार और अनार रस से युक्त गेंहूं और · अर्थ-प्रथि विसर्पयुक्त शुल में दशमूल
जौ का अन्न, सीध मधु, शर्कग, शहत और के काढे में तेल वा गोमूत्र पकाकर अथवा बिजौरे के रससे युक्त वारुणीमंड, मधुसंयुक्त केवल दशमूल के काढे का परिषेक करे। त्रिफला और मधुसंयुक्त पीपल के प्रयोग से अन्य प्रलेपादि।
देवदारु और गिलोय के प्रयोग से, गेरू, सुखोष्णया प्रदिह्याद्वा पिष्टया कृष्णगंधया।
| मोथा, मिल,बा, सत्तू और शहत के प्रयोगों नकमालत्वचा शुष्कमूलकै कालिनाऽथवा ... अर्थ-कृष्णगंधा, वा कंजा की छाल,
से, धूमप्रयोग से, शिगविरेचन से, गुल्म वा सखी मूली वा वहेडा इनको जलमें पीस
को भेदन करनेवाले पूर्वोक्त प्रयोगों से, कर गुनगुनी करके लेप करे ।
गरम लोहा, सुवर्ण, नमक पत्थर आदि के दत्यादि लेप।
प्रयोगों से बहुत पुरानी ग्रंथि भेदित हो दंती चित्रकम्लत्वकसौधापयसी गुडः। | जाती है । भल्लातकास्थि कालीसंलेपोभिंद्याच्छिलामणि ग्रंथि के शांत न होने में दाह । बहिर्माश्रितं ग्रंथि किं पुनः कफसंभवम्। आभिः क्रियाभिः सिद्धाभिर्विविधाभिवले दीर्घकालस्थितं ग्रंथिमेभिर्भिद्याच्च भेषजैः॥.
स्थितः। अर्थ-दंती और चीते की जड की ग्रंथिः पाषाणकठिनो यदि नैवोपशाम्यति॥ छाल सेहुड का दूध, आक का दूध, अयास्य दाहःक्षारेण शरैहम्नाऽपि वा हितः गुड, भिलावे की गुठली, और हीरा.
पाकिभिः पाचयित्वा तु पाटयित्वासमुद्धरेत् कसीस इनका लेप शिला को भी तोड देता
अर्थ-ऊपर लिखे हुए अनक प्रकार के है । फिर उस ग्रंथि का क्या कहना है जो
सिद्ध प्रयोगों के करने पर भी यदि अत्यन्त कफ से उत्पन्न होकर बाहर को निकली
| बढी हुई और पत्थर के समान कठोर ग्रंथि हुई है । इन औषधों से बहुत काल की
प्रशमित न हो, तो क्षार के प्रयोग से अथवा ग्रंथि भी नष्ट होजाती है।
अत्यन्त गरम किये हुए शर वा सुवर्ण द्वारा .. ग्रंथि के भेदन का उपाय।
दग्ध करना चाहिये । और पकानेवाले मूलकानां कुलत्थानां यूपैः समारदाडिमः। द्रव्या द्वारा पकाकर इसको अस्त्रद्वारा निगोधूमान्नैर्यवानैश्च ससीधुमधुशर्करैः २८. / काल देना चाहिये ।
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