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अ० २३
सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत ।
(१९५ )
हितम् ।
मात्रा का प्रमाण । यावत्पर्येति हस्ताग्रं दक्षिणं जानुमंडलम् ॥
रुक्तोदकंघर्षाश्रुदाहरोगनिवर्हणम् ॥ १॥ निमेषोन्मेषकालेन समं मात्रातु सास्मृता।
। अर्थ-संपूर्ण प्रकार के नेत्र रोगों में अर्थ-दाहिना हाथ जानु के चारों ओर | आश्चोतन अर्थात, परिषेक हितकारी होता जितनी देर में घुमाया जाता है उतना स- है इससे आंखों का दर्द, तोद, कंडू, घर्ष मय यदि आंख के खोलने और बन्द करने ( दोनों पलकों का चिपट जाना ), आंसू के स्वाभाविक काल के समान हो तो उस गिरना, दाह और ललाई जाते रहते हैं । समय को मात्रा कहते हैं।
आश्चोतन विधि ।। मूर्द्धतेल के गुण । उष्णं वाते कफे कोष्णं तच्छीत रक्तपित्तयोः कवसदनसितत्वापिंजरत्वं
निवातस्थस्यवामेनपाणिनोन्मील्य लोचनम् परिफुटनं शिरसः सभीररोगान् ।। शुक्त्याप्रलंबयाऽन्येन पिचुवाकनीनिके। जयति जनयतींद्रियप्रसाद
दश द्वादशवाबिन्दून द्वथंगुलादवसेचयेत् । स्वरहनुमूर्धबलं च मूर्धतैलम् ॥ ३३ ॥ ततःप्रमृज्य मृदुना चैलेन कफवातयोः।
अर्थ-मूर्द्ध तैल बालों का गिरना, स- अन्येन कोष्णपानीयप्लुतेनस्वेदयेन्मृदु ४॥ फेद होना, पिंगलत्व, परिफुटन को दूर | ___ अर्थ-यह भाश्चोतन वातज नेत्ररोग में करता है, मस्तक के वातरोगों का नाश गरम, कफ में थोड़ा गरम और रक्तपित्त करता है तथा इन्द्रियों में निर्मलता, स्वरमें में शीतल दिया जाता है । इसकी विधि बल, हनुबल और मस्तकबलको उत्पन्न
यह है कि रोगी को वातरहित स्थान में करता है।
बैठाकर वांये हाथ से आंख खोलकर सीपी इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां ।
प्रलंबा वा रुई के फोये से दो अंगुल ऊंचे द्वाविंशतितमोऽध्यायः।
से आंख के तारे पर दस बारह बूंद डाल दे । तदनंतर कोमल वत्र से आंख पोछकर
गुनगुने पानी में चैलवर्ति को भिगोकर धीरे त्रयोविंशोऽध्यायः ।
धारे आंखों में स्वेदन करै । यह आश्चौतन
वात कफमें किया जाता है रक्तपित्त में भयाऽत आश्च्योतनांजनविधिमध्याय- नहीं।
व्याख्यास्यामः। - अर्थ-अब हम यहां से आश्चोतन और
अत्युष्ण आश्चोतन के रोग । . अंजनविधि नामक अध्यायकी व्याख्या अतिशीतं तु कुरुते निस्तोदस्तंभवेदनाः ५॥
अत्युष्णतीक्ष्णरुग्रागडनाशायाऽक्षिसेचनम् करेंगे।
कषायवर्त्मतां घर्ष कृच्छ्रादुन्मेषणं बहु । नेत्ररोग में आश्चोतन । विकारवृद्धिमत्यल्पं सरंभमपरितम् ६ ॥ " सर्वेषामक्षिरोगाणामादावाश्च्योतनम्- | अर्थ-अत्यंत उष्ण और अत्यंत तीक्ष्ण
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