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अर्थ - विगतज्वर के ये लक्षण होते हैं यथा -- देहमें हलकापन, क्लान्तिनाश, मोहनाश, तापनाश, मुखपाक, इन्द्रियों में सौष्ठव व्यथारहितता, पसीना, छीक, मनमें सावधानी, अन्नमें रुचि, और मस्तक में खुजली । इति श्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां द्वितीयोऽध्यायः ।
तृतीयोऽध्यायः ।
अष्टiिहृदय |
अथातो रक्तपित्तकासनिदानम्
व्याख्यास्यामः ।
अर्थ - अब हम यहांसे रक्तपित्त निदान नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे ।
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रक्तपित्तके दूषित होनेका कारण । 'भृशोष्णतीक्ष्णकट्वम्ललवणदिविदाहिभिः कोद्रवोद्दालकैश्चान्नैस्तद्युकैरतिसेवितैः १ ॥ कुपितं पित्तलैः पित्तं द्रवं रक्तं च मूर्छिते । तेमिवस्तुल्यरूपत्वमागम्य व्याप्नुतस्तनुम् अर्थ- अत्यन्त उष्ण, अत्यन्त तीक्ष्ण अत्यंतकटु, अत्यंत अम्ल, और अत्यंत लवयादि विदाहोत्पादक द्रव्य तथा कोदों, उद्दालक, पित्तकारक द्रव्योंके अत्यंत सेवन : से पतले स्वभाववाला पित्त, प्रकुपित रक्त से मिलकर आपस में समान रूपको प्राप्त होकर सब शरीरमें व्याप्त होजाता हैं । रक्त की विकृति |
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अ० में
के रक्तसे उत्पन्न होने के कारण, रक्तके संसर्ग से अर्थात् रक्त और पित्त आपस में मिलजाने से, पिस द्वारा रक्तके दूषित होने से और रक्त द्वारा पित्तके दूषित होने से तथा रक्तका जैसा गंध और वर्ण है वैसाही गंध और वर्ण पित्त के होनेसे अर्थात् उक्त सव कारणों से रक्त का पित्तके साथ व्यपदेश होकर रक्तपित्त नाम होता है । अधिक रक्त का कारण । प्रभवत्यसृजः स्थानात्प्लीहतो यकृतश्च तत् अर्थ - प्लीहा और यकृत ये रक्त के स्थान है, वहीं से उच्छ्रित रक्त अधिक निकरता है ।
रक्तपित्त के पूर्वरूप | शिरोगुरुत्वमरुचिः शीतेच्छा धूमको ऽम्लकः छर्दिश्छर्दितबैभत्स्यं कारुः श्वासो भ्रमः क्लमः । लोहलाोहितमत्स्यामगंधास्यत्वं स्वरक्षयः ॥ रक्तहारिद्रहरितवर्णता नयनादिषु । नीललोहित पीतानां वर्णानामविवेचनम् ६ ॥ स्वप्ने तद्वर्णदर्शित्वं भवत्यस्मिन्भविष्यति । अर्थ - सिर में भारापन, अरुचि, शतिल वस्तुकी इच्छा, कंठमें धूंआंसा निकलना, खट्टी डकार, वमन, वमितद्रव्य में दुर्गेधि, खांसी, श्वास, भ्रम, क्लांति, मुखमें लोह, रक्त मछली कीसी कच्ची गंध आना, स्वर की क्षीणता, नेत्रों में लाली, हलदी कासा रंग, अथवा हरापन होना, नील लोहित और पीले रंगों में अंतर न माळूम होना, और स्वप्न में लालरंग दिखाई देना येसव रक्तपित के पूर्वरूप हैं ।
रक्तपित्त के तीन भेद |
पित्तं रक्तस्य विकृतेः संसर्गाद् दूषणादपि । गंधवर्णानुवृत्तेश्च रक्तेन व्यपदिश्यते ॥ ३ ॥
अर्थ - रक्तकी विकृति से अर्थात् पित्त | ऊर्ध्वं नासाक्षिकर्णास्यैर्मेंद्र यानि गुदैरधः ७
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